आज का श्लोक, ’संस्पर्शजाः’ / ’saṃsparśajāḥ’
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’संस्पर्शजाः’ / ’saṃsparśajāḥ’ - इन्द्रियों और विषयों के पारस्परिक संयोग से उत्पन्न होनेवाले,
अध्याय 5, श्लोक 22,
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ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
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(ये हि संस्पर्शजाः भोगाः दुःखयोनयः एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥)
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भावार्थ :
विषयों और इन्द्रियों के पारस्परिक संपर्क से उत्पन्न होनेवाले जितने भी भोग हैं (यद्यपि वे सुख्प्रद दिखलाई देते हों, परिणाम में) वे दुःख के ही हेतु हैं । उन आद्यन्तवन्त (जिनका प्रारंभ और अन्त है), ऐसे भोगों में हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र) अर्जुन ! विवेकीजन नहीं रमते ।
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’संस्पर्शजाः’ / ’saṃsparśajāḥ’ - The pleasures that are a result of the contact of senses with the objects.
Chapter 5, shloka 22,
ye hi saṃsparśajā bhogāḥ
duḥkhayonaya eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||
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(ye hi saṃsparśajāḥ bhogāḥ
duḥkhayonayaḥ eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||)
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Meaning :
O kaunteya (arjuna)! The pleasures that are enjoyed by the contact of senses with the objects are the cause of misery only. They always have a beginning and an end. Wise never indulge in them.
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’संस्पर्शजाः’ / ’saṃsparśajāḥ’ - इन्द्रियों और विषयों के पारस्परिक संयोग से उत्पन्न होनेवाले,
अध्याय 5, श्लोक 22,
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ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
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(ये हि संस्पर्शजाः भोगाः दुःखयोनयः एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥)
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भावार्थ :
विषयों और इन्द्रियों के पारस्परिक संपर्क से उत्पन्न होनेवाले जितने भी भोग हैं (यद्यपि वे सुख्प्रद दिखलाई देते हों, परिणाम में) वे दुःख के ही हेतु हैं । उन आद्यन्तवन्त (जिनका प्रारंभ और अन्त है), ऐसे भोगों में हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र) अर्जुन ! विवेकीजन नहीं रमते ।
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’संस्पर्शजाः’ / ’saṃsparśajāḥ’ - The pleasures that are a result of the contact of senses with the objects.
Chapter 5, shloka 22,
ye hi saṃsparśajā bhogāḥ
duḥkhayonaya eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||
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(ye hi saṃsparśajāḥ bhogāḥ
duḥkhayonayaḥ eva te |
ādyantavantaḥ kaunteya
na teṣu ramate budhaḥ ||)
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Meaning :
O kaunteya (arjuna)! The pleasures that are enjoyed by the contact of senses with the objects are the cause of misery only. They always have a beginning and an end. Wise never indulge in them.
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