आज का श्लोक, ’संसारेषु’ / ’saṃsāreṣu,’
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’संसारेषु’ / ’saṃsāreṣu’ - संसार में, जन्म-पुनर्जन्म में,
अध्याय 16, श्लोक 19,
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तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्चैव योनिषु ॥
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(तान् अहम् द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपामि अजस्रम् अशुभान् आसुरीषि एव योनिषु ॥)
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भावार्थ :
जैसा श्लोक 8 में कहा गया है, आसुरी सम्पदा / प्रकृति से युक्त मनुष्य मानते हैं कि इस जगत् की कोई नियामक चेतन-सत्ता (ईश्वर) नहीं है, जिससे जगत् अस्तित्व में आता हो । .... उस नियामक सत्ता (ईश्वर) से विद्वेष रखनेवाले अधम पापकर्ममें रत क्रूर मनुष्यों को मैं (उनकी अपनी आत्मा, ईश्वर ही) संसार में बारम्बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ ।*
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*टिप्पणी :
(सृजन, सृष्टि, संसार की दो सम्पदाओं (प्रकृतियों) में से दैवी का वर्णन इस अध्याय के श्लोक 1 से श्लोक 5 तक है, श्लोक 6 से श्लोक 20 तक आसुरी सम्पदा (प्रकृति) का वर्णन है । उस आसुरी सम्पदा (प्रकृति) को लेकर संसार में जन्म लेनेवालों की क्या गति होती है, इसके बारे में यहाँ बतलाया गया है ।)
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’संसारेषु’ / ’saṃsāreṣu’ - In the world of death and repeated birth.
Chapter 16, shloka 19,
tānahaṃ dviṣataḥ krūrān-
saṃsāreṣu narādhamān |
kṣipāmyajasramaśubhān-
āsurīṣcaiva yoniṣu ||
--
(tān aham dviṣataḥ krūrān
saṃsāreṣu narādhamān |
kṣipāmi ajasram aśubhān
āsurīṣi eva yoniṣu ||)
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Meaning :
Those sinners with āsurī / evil tendecies, with cruel minds, who hate the authority of Divine Cosmic Intelligence Principle that controls and regulates the whole existence, -Me, are thrown into demonic wombs repeatedly, and perpetually they keep on suffering.*
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* Note :(The two kinds of essential tendencies of nature (prakṛti) are daivī / divine, and āsurī / evil, respectively. Everybody made of 5 elements and 3 guṇa, (prakṛti) shares these 2 tendencies in different proportion. That decides what kind of tendencies are prevailent in a man. The tendencies (daivī ) are explained from shloka 1 to 5, and (āsurī) from 6 to 20 of this chapter 16)
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’संसारेषु’ / ’saṃsāreṣu’ - संसार में, जन्म-पुनर्जन्म में,
अध्याय 16, श्लोक 19,
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तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्चैव योनिषु ॥
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(तान् अहम् द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपामि अजस्रम् अशुभान् आसुरीषि एव योनिषु ॥)
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भावार्थ :
जैसा श्लोक 8 में कहा गया है, आसुरी सम्पदा / प्रकृति से युक्त मनुष्य मानते हैं कि इस जगत् की कोई नियामक चेतन-सत्ता (ईश्वर) नहीं है, जिससे जगत् अस्तित्व में आता हो । .... उस नियामक सत्ता (ईश्वर) से विद्वेष रखनेवाले अधम पापकर्ममें रत क्रूर मनुष्यों को मैं (उनकी अपनी आत्मा, ईश्वर ही) संसार में बारम्बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ ।*
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*टिप्पणी :
(सृजन, सृष्टि, संसार की दो सम्पदाओं (प्रकृतियों) में से दैवी का वर्णन इस अध्याय के श्लोक 1 से श्लोक 5 तक है, श्लोक 6 से श्लोक 20 तक आसुरी सम्पदा (प्रकृति) का वर्णन है । उस आसुरी सम्पदा (प्रकृति) को लेकर संसार में जन्म लेनेवालों की क्या गति होती है, इसके बारे में यहाँ बतलाया गया है ।)
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’संसारेषु’ / ’saṃsāreṣu’ - In the world of death and repeated birth.
Chapter 16, shloka 19,
tānahaṃ dviṣataḥ krūrān-
saṃsāreṣu narādhamān |
kṣipāmyajasramaśubhān-
āsurīṣcaiva yoniṣu ||
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(tān aham dviṣataḥ krūrān
saṃsāreṣu narādhamān |
kṣipāmi ajasram aśubhān
āsurīṣi eva yoniṣu ||)
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Meaning :
Those sinners with āsurī / evil tendecies, with cruel minds, who hate the authority of Divine Cosmic Intelligence Principle that controls and regulates the whole existence, -Me, are thrown into demonic wombs repeatedly, and perpetually they keep on suffering.*
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* Note :(The two kinds of essential tendencies of nature (prakṛti) are daivī / divine, and āsurī / evil, respectively. Everybody made of 5 elements and 3 guṇa, (prakṛti) shares these 2 tendencies in different proportion. That decides what kind of tendencies are prevailent in a man. The tendencies (daivī ) are explained from shloka 1 to 5, and (āsurī) from 6 to 20 of this chapter 16)
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