आज का श्लोक, ’संसिद्धिम्’ / ’saṃsiddhim’,
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’संसिद्धिम्’ / ’saṃsiddhim’ - आत्म-ज्ञान को,
अध्याय 3, श्लोक 20,
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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयाः ।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥
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(कर्मणा एव हि संसिद्धिम् आस्थिताः जनकादयः ।
लोकसङ्ग्रहम् एव अपि सम्पश्यन् कर्तुम् अर्हसि ॥)
--
भावार्थ :
जनक और दूसरे ज्ञानी भी (निष्काम) कर्म करते हुए ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए / में सुस्थित हुए । संसार के कल्याण की दृष्टि से भी तुम्हारा कार्य करना उचित है ।
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अध्याय 8, श्लोक 15,
--
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥
--
(माम् उपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयम्-अशाश्वतम् ।
न आप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिम् परमाम् गताः ॥)
--
भावार्थ :
उस परम गति को अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाने पर, महात्मा पुरुष पुनर्जन्म दुःखालयस्वरूप अशाश्वत् संसार में फिर नहीं आते ।
--
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
--
(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिम् लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
--
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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Chapter 3, shloka 20,
’संसिद्धिम्’ / ’saṃsiddhim’ - The Supreme goal, meaning and fulfillment in life.
karmaṇaiva hi saṁsiddhim-
āsthitā janakādayāḥ |
lōkasaṅgrahamēvāpi
sampaśyankartumarhasi ||
--
(karmaṇā ēva hi saṁsiddhim
āsthitāḥ janakādayaḥ |
lōkasaṅgraham ēva api
sampaśyan kartum arhasi ||)
--
Meaning :
King Janaka and other such sages attained the Supreme state while performing their duties (with a mind free from desire). You too can do likewise for the benefit of the world.
--
Chapter 8, shloka 15,
māmupetya punarjanma
duḥkhālayamaśāśvatam |
nāpnuvanti mahātmānaḥ
saṃsiddhiṃ paramāṃ gatāḥ ||
--
(mām upetya punarjanma
duḥkhālayam-aśāśvatam |
na āpnuvanti mahātmānaḥ
saṃsiddhim paramām gatāḥ ||)
--
Meaning :
Having attained the Supreme State, - Me, The elevated souls never return to rebirth in this impermanent world, that is the home of misery only.
--
Chapter 18, shloka 45,
--
sve sve karmaṇyabhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhiṃ
yathā vindati tacchruṇu ||
--
(sve sve karmaṇi abhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhim
yathā vindati tat śṛṇu ||)
--
Meaning :
When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,
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’संसिद्धिम्’ / ’saṃsiddhim’ - आत्म-ज्ञान को,
अध्याय 3, श्लोक 20,
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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयाः ।
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥
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(कर्मणा एव हि संसिद्धिम् आस्थिताः जनकादयः ।
लोकसङ्ग्रहम् एव अपि सम्पश्यन् कर्तुम् अर्हसि ॥)
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भावार्थ :
जनक और दूसरे ज्ञानी भी (निष्काम) कर्म करते हुए ही परम-सिद्धि को प्राप्त हुए / में सुस्थित हुए । संसार के कल्याण की दृष्टि से भी तुम्हारा कार्य करना उचित है ।
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अध्याय 8, श्लोक 15,
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मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥
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(माम् उपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयम्-अशाश्वतम् ।
न आप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिम् परमाम् गताः ॥)
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भावार्थ :
उस परम गति को अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाने पर, महात्मा पुरुष पुनर्जन्म दुःखालयस्वरूप अशाश्वत् संसार में फिर नहीं आते ।
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अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
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(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिम् लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
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भावार्थ :
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कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
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Chapter 3, shloka 20,
’संसिद्धिम्’ / ’saṃsiddhim’ - The Supreme goal, meaning and fulfillment in life.
karmaṇaiva hi saṁsiddhim-
āsthitā janakādayāḥ |
lōkasaṅgrahamēvāpi
sampaśyankartumarhasi ||
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(karmaṇā ēva hi saṁsiddhim
āsthitāḥ janakādayaḥ |
lōkasaṅgraham ēva api
sampaśyan kartum arhasi ||)
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Meaning :
King Janaka and other such sages attained the Supreme state while performing their duties (with a mind free from desire). You too can do likewise for the benefit of the world.
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Chapter 8, shloka 15,
māmupetya punarjanma
duḥkhālayamaśāśvatam |
nāpnuvanti mahātmānaḥ
saṃsiddhiṃ paramāṃ gatāḥ ||
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(mām upetya punarjanma
duḥkhālayam-aśāśvatam |
na āpnuvanti mahātmānaḥ
saṃsiddhim paramām gatāḥ ||)
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Meaning :
Having attained the Supreme State, - Me, The elevated souls never return to rebirth in this impermanent world, that is the home of misery only.
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Chapter 18, shloka 45,
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sve sve karmaṇyabhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhiṃ
yathā vindati tacchruṇu ||
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(sve sve karmaṇi abhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhim
yathā vindati tat śṛṇu ||)
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Meaning :
When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,
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