आज का श्लोक, ’संहरते’ / ’saṃharate’
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’संहरते’ / ’saṃharate’ - संकुचित कर लेता है, समेट लेता है ।
अध्याय 2, श्लोक 58,
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यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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(यदा संहरते च अयम् कूर्मः अङ्गान् इव सर्वशः ।
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
--
भावार्थ :
जैसे कछुआ अपने अंगों को खोल के भीतर समेट लेता है, उस तरह से जब मनुष्य इन्द्रियों को उनके विषयों से परावृत्त कर (लौटाकर), अपने अन्तर में स्थित चेतना में एकाग्र / स्थिर कर लेता है तो उसकी बुद्धि स्थिर होती है ।
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टिप्पणी :
यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्द्रियों को उनके विषयों से हठपूर्वक दूर करना संभव नहीं है । केवल विवेक और वैराग्य होने पर उत्पन्न होनेवाले सहज संकल्प के द्वारा ही ऐसा होता है । यदि बलपूर्वक इन्द्रियों को उनके विषय से दूर रखा गया तो भी मन में उनकी अनित्यता और उनके दोषों पर ध्यान न देने से, उनका विस्मरण होने से, और उनमें सुख है, ऐसी मिथ्या कल्पना से, उनमें राग-बुद्धि यथावत् बनी रहेगी जो इस संकल्प को नहीं उठने देगी । किन्तु जब विवेक और वैराग्य अभ्यास के द्वारा या पर्याप्त चिन्तन के द्वारा परिपक्व हो जाते हैं तो अन्तर में अवस्थित ’मैं’ (भावना या आत्मा) पर चित्त को एकाग्र करना आसान हो जाता है । इस श्लोक में यह तो बतलाया गया है कि इन्द्रियों को उनके विषयों से लौटाकर अन्तर में स्थिर करना है, किन्तु उन्हें अन्तर / अन्तर्हृदय में कहाँ, किस विषय पर लगाना है, इस बारे में इस अध्याय के श्लोक 61 में ’मत्परः’ से स्पष्ट किया गया है ।
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’संहरते’ / ’saṃharate’ - withdraws inwards.
Chapter 2, shloka 58,
yadā saṃharate cāyaṃ
kūrmo:'ṅgānīva sarvaśaḥ |
indriyāṇīndriyārthebhyas-
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
(yadā saṃharate ca ayam(
kūrmaḥ aṅgān iva sarvaśaḥ |
indriyāṇi indriyārthebhyaḥ
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
--
Meaning :
The aspirant should withdraw his attention back form the objects towards the senses, and then withdraw the same within heart / pure consciousness only, just like a tortoise who withdraws his limbs inwards. One who could do this is said to have of steady wisdom.
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Note :
The shloka 61 of this chapter tells us that having with-drawn attention from the sense-objects and also from the senses inwards, one should fix the same in 'Me' (’matparaḥ’) .
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’संहरते’ / ’saṃharate’ - संकुचित कर लेता है, समेट लेता है ।
अध्याय 2, श्लोक 58,
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यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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(यदा संहरते च अयम् कूर्मः अङ्गान् इव सर्वशः ।
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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भावार्थ :
जैसे कछुआ अपने अंगों को खोल के भीतर समेट लेता है, उस तरह से जब मनुष्य इन्द्रियों को उनके विषयों से परावृत्त कर (लौटाकर), अपने अन्तर में स्थित चेतना में एकाग्र / स्थिर कर लेता है तो उसकी बुद्धि स्थिर होती है ।
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टिप्पणी :
यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्द्रियों को उनके विषयों से हठपूर्वक दूर करना संभव नहीं है । केवल विवेक और वैराग्य होने पर उत्पन्न होनेवाले सहज संकल्प के द्वारा ही ऐसा होता है । यदि बलपूर्वक इन्द्रियों को उनके विषय से दूर रखा गया तो भी मन में उनकी अनित्यता और उनके दोषों पर ध्यान न देने से, उनका विस्मरण होने से, और उनमें सुख है, ऐसी मिथ्या कल्पना से, उनमें राग-बुद्धि यथावत् बनी रहेगी जो इस संकल्प को नहीं उठने देगी । किन्तु जब विवेक और वैराग्य अभ्यास के द्वारा या पर्याप्त चिन्तन के द्वारा परिपक्व हो जाते हैं तो अन्तर में अवस्थित ’मैं’ (भावना या आत्मा) पर चित्त को एकाग्र करना आसान हो जाता है । इस श्लोक में यह तो बतलाया गया है कि इन्द्रियों को उनके विषयों से लौटाकर अन्तर में स्थिर करना है, किन्तु उन्हें अन्तर / अन्तर्हृदय में कहाँ, किस विषय पर लगाना है, इस बारे में इस अध्याय के श्लोक 61 में ’मत्परः’ से स्पष्ट किया गया है ।
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’संहरते’ / ’saṃharate’ - withdraws inwards.
Chapter 2, shloka 58,
yadā saṃharate cāyaṃ
kūrmo:'ṅgānīva sarvaśaḥ |
indriyāṇīndriyārthebhyas-
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
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(yadā saṃharate ca ayam(
kūrmaḥ aṅgān iva sarvaśaḥ |
indriyāṇi indriyārthebhyaḥ
tasya prajñā pratiṣṭhitā ||
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Meaning :
The aspirant should withdraw his attention back form the objects towards the senses, and then withdraw the same within heart / pure consciousness only, just like a tortoise who withdraws his limbs inwards. One who could do this is said to have of steady wisdom.
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Note :
The shloka 61 of this chapter tells us that having with-drawn attention from the sense-objects and also from the senses inwards, one should fix the same in 'Me' (’matparaḥ’) .
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