Sunday, May 25, 2014

आज का श्लोक, ’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’,

आज का श्लोक,  ’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’,  
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’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’,   - छोड़ दिया जाना, परित्याग, विधिपूर्वक, या ऐसे ही किसी कारणवश,

अध्याय 5, श्लोक 2,

श्रीभगवानुवाच :

सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
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(सन्न्यासः कर्मयोगः च निःश्रेयस्करौ उभौ ।
तयोः तु कर्मसन्न्यासात् कर्मयोगः विशिष्यते ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
संन्यास और कर्मयोग दोनों ही निश्चय ही समान रूप से परम कल्याणकारी हैं, किन्तु कर्मसंन्यास की तुलना में कर्मयोग (कुछ भिन्न होने से उससे अपेक्षाकृत) अधिक श्रेष्ठ है ।
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टिप्पणी :
यहाँ पहले यह जान लेना रोचक होगा कि कर्मसंन्यास तथा कर्मयोग में क्या समानता और क्या भेद है । कर्मसंन्यास से यहाँ तात्पर्य है सांसारिक कर्मों से स्वेच्छया  अपने-आपको मुक्त रखते हुए साँख्ययोग का अभ्यास करना । इसके लिए मनुष्य को परिवार और समाज के संबंधों को त्यागना आवश्यक अनुभव हो सकता है । परन्तु चूँकि उन संबंधों की कोई वास्तविक सत्ता नहीं होती वरन् वे स्मृति और प्रमादवश ही सत्य की भाँति ग्रहण कर लिए जाते हैं, और उनकी यह आभासी तथा औपचारिक सत्ता भी स्मृति पर ही अवलंबित होती है, इसलिए स्मृति की सत्यता पर सन्देह न होने तक ऐसा अभ्यास, यह ’कर्मसंन्यास’ अभ्यासमात्र है, एक सीमा तक इसकी अपनी उपयोगिता भी है ही । किन्तु ’कर्मयोग’ इस अर्थ में इस ’कर्मसंन्यास’ से भिन्न है, कि इसमें मनुष्य कर्मों के होने या न होने से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि वह जानता है कि कर्म प्रकृति के तीन गुणों का कार्य है, और अपने करने या न करने के आग्रह या विचार से उनके होने या न होने का कोई संबंध नहीं है । और तब वह अपने कर्ता होने की भावना से भी मुक्त रहते हुए शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के कर्म में संलग्न या असंलग्न रहते हुए भी अपने स्वाभाविक ’अकर्ता’ और बोधमात्र होने की सत्यता को जानने लगता है । यद्यपि वह इसे परिभाषित भी न कर सके, किन्तु इससे उसके मन में जो शान्ति व्याप्त होती है, उसे वही जानता और अनुभव करता है । और इसलिए इस दृष्टि से कर्मयोग को कर्मसंन्यास से कुछ अधिक श्रेष्ठ कहा जा सकता है । किन्तु फल (परिणाम) की दृष्टि से दोनों समान ही हैं । अगले श्लोक (6) में इसी तथ्य की पुष्टि देखी जा सकती है ।

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अध्याय 5, श्लोक 6,

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
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(सन्न्यासः तु महाबाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योगयुक्तः मुनिः ब्रह्म न चिरेण अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन) योग का अवलंबन लिए बिना कर्म का सम्यक् और परिपूर्ण त्याग करने का प्रयास क्लेश का कारण होता है । जबकि योग का अवलंबन लेनेवाला मुनि (अभ्यासरत मनुष्य) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 7,

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकिर्तितः ॥
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(नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणः न उपपद्यते ।
मोहात् तस्य परित्यागः तामसः परिकीर्तितः ॥)
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भावार्थ :
शास्त्र द्वारा निषिद्ध और काम्य कहे जानेवाले कर्मों का त्याग, अर्थात् उन्हें न करना तो उचित ही होता है, किन्तु शास्त्रविहित अपने लिए निर्दिष्ट कर्तव्यों का प्रमादवश किया जानेवाले त्याग को तामसी त्याग कहा जाता है ।  
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’संन्न्यासः’ / ’saṃnnyāsaḥ’, -  renunciation, giving-up, either or both, - the action and the hope for their consequent fruits, appropriate according to the context.

Chapter 5, śloka 2,

sannyāsaḥ karmayogaśca
niḥśreyasakarāvubhau |
tayostu karmasannyāsāt-
karmayogo viśiṣyate ||
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(sannyāsaḥ karmayogaḥ ca
niḥśreyaskarau ubhau |
tayoḥ tu karmasannyāsāt
karmayogaḥ viśiṣyate ||)
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Meaning :
Though the renunciation of action (karma) as such, even without the proper understanding of yoga, and karmayoga
(reasons : *Giving up the wrong notion that actions are done by one independently by oneself and failing to realize that all actions are done by the three attributes guṇa of  prakṛti only) both are equally very helpful in attainment of the Supreme Goal (’mokṣa’), The later is somehow superior to renunciation (without the proper understanding of yoga), for the obvious reasons*)  
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Chapter 5, śloka 6,
sannyāsastu mahābāho
duḥkhamāptumayogataḥ |
yogayukto munirbrahma
nacireṇādhigacchati ||
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(sannyāsaḥ tu mahābāho
duḥkham āptum ayogataḥ |
yogayuktaḥ muniḥ brahma
na cireṇa adhigacchati ||)
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Meaning :
Right Renunciation of action (karma) happens with the help of yoga only O  mahābāhu, (arjuna) ! With the help of yoga a practicing noble aspirant realizes Brahman without delay.
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Chapter 18, śloka 7,

niyatasya tu sannyāsaḥ 
karmaṇo nopapadyate |
mohāttasya parityāgas-
tāmasaḥ parikirtitaḥ ||
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(niyatasya tu sannyāsaḥ 
karmaṇaḥ na upapadyate |
mohāt tasya parityāgaḥ
tāmasaḥ parikīrtitaḥ ||)
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Meaning :
because of laziness or idleness Renunciation of action that is obligatory, and according to the scriptures is one's very duty to perform is called  of the tāmasa kind.
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