आज का श्लोक ’संशुद्धकिल्बिषः’ / ’saṃśuddhakilbiṣaḥ’
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’संशुद्धकिल्बिषः’ / ’saṃśuddhakilbiṣaḥ’ - संपूर्ण पापों से रहित,
अध्याय 6, श्लोक 45,
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प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥
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(प्रयत्नात्-यतमानः तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धः ततः याति पराम् गतिम् ॥)
--
भावार्थ :
(श्लोक 43, 44 के क्रम में, आगे इस श्लोक में यह बतलाया गया है कि )
इस प्रकार क्रमशः अनेक जन्मों के धैर्यपूर्वक अभ्यास से निर्मल संपूर्ण पापों से रहित हुआ योगी का मन तब परम अवस्थारूपी भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ।
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’संशुद्धकिल्बिषः’ / ’saṃśuddhakilbiṣaḥ’- (mind) that is freed from all the sins, and thus made pure.
Chapter 6, shloka 45,
prayatnādyatamānastu
yogī saṃśuddhakilbiṣaḥ |
anekajanmasaṃsiddhas-
tato yāti parāṃ gatim ||
--
(prayatnāt-yatamānaḥ tu
yogī saṃśuddhakilbiṣaḥ |
anekajanmasaṃsiddhaḥ
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
Thus, the mind of the yogī, through long practice of austerities and bhakti (devotion) becomes free of sins and all other impurities, made pure attains the Supreme State of unity with The Self / Divinity.
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Comment :
In the present day-parlance, we can say when the mind is no more subject to 'negative' thoughts, it becomes supple, subtle, clear and full of insight.
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’संशुद्धकिल्बिषः’ / ’saṃśuddhakilbiṣaḥ’ - संपूर्ण पापों से रहित,
अध्याय 6, श्लोक 45,
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प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥
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(प्रयत्नात्-यतमानः तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धः ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
(श्लोक 43, 44 के क्रम में, आगे इस श्लोक में यह बतलाया गया है कि )
इस प्रकार क्रमशः अनेक जन्मों के धैर्यपूर्वक अभ्यास से निर्मल संपूर्ण पापों से रहित हुआ योगी का मन तब परम अवस्थारूपी भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ।
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’संशुद्धकिल्बिषः’ / ’saṃśuddhakilbiṣaḥ’- (mind) that is freed from all the sins, and thus made pure.
Chapter 6, shloka 45,
prayatnādyatamānastu
yogī saṃśuddhakilbiṣaḥ |
anekajanmasaṃsiddhas-
tato yāti parāṃ gatim ||
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(prayatnāt-yatamānaḥ tu
yogī saṃśuddhakilbiṣaḥ |
anekajanmasaṃsiddhaḥ
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
Thus, the mind of the yogī, through long practice of austerities and bhakti (devotion) becomes free of sins and all other impurities, made pure attains the Supreme State of unity with The Self / Divinity.
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Comment :
In the present day-parlance, we can say when the mind is no more subject to 'negative' thoughts, it becomes supple, subtle, clear and full of insight.
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