आज का श्लोक,
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’
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’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - योग का अवलंबन लेनेवाला,
अध्याय 5, श्लोक 6,
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
--
(संन्यासः तु महा बाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योगयुक्तः मुनिर्ब्रह्म नचिरेण अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन) योग का अवलंबन लिए बिना कर्म का सम्यक् और परिपूर्ण त्याग करने का प्रयास क्लेश का कारण होता है । जबकि योग का अवलंबन लेनेवाला मुनि (अभ्यासरत मनुष्य) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 7,
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतातात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
--
(योगयुक्तः विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते ॥)
--
भावार्थ :
योग में सम्यकतया स्थित हुआ विशुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य जिसने अपने मन-बुद्धि इन्द्रियों को विवेकपूर्वक वश में कर लिया है, ऐसा वह आत्मा (मनुष्य) जिसने सबमें विद्यमान आत्मा (ईश्वरीय चेतना) और अपने में विद्यमान अपने अस्तित्व की चेतना की परस्पर अभिन्नता को जान लिया हो, (प्रारब्धवश) विभिन्न कर्मों को करते हुए भी, स्वयं के अपने ’स्वतन्त्र कर्ता’ होने के, कर्तापन के अभिमान में लिप्त नहीं होता ।
--
अध्याय 8, श्लोक 27,
--
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥
--
(न एते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्-सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥)
--
भावार्थ :
इन दोनों मार्गों को* जानता हुआ कोई भी योगी मोहबुद्धि से ग्रस्त नहीं होता, अर्थात् मृत्यु के बाद भविष्य में होनेवाली उसकी गति / अवस्था के बारे में उसे दुविधा नहीं होती ।
इसलिए हे अर्जुन! तुम सभी कालों में, सदैव ही योगयुक्त हो रहो ।
(*इसी अध्याय 8 में पिछले श्लोक, क्रमांक 26 में वर्णित ’शुक्ल’ तथा ’कृष्ण’ गतियाँ)
--
’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - one following the way of yoga with due understanding of its fundamentals.
Chapter 5, śloka 6,
saṃnyāsastu mahābāho
duḥkhamāptumayogataḥ |
yogayukto munirbrahma
nacireṇādhigacchati ||
--
(saṃnyāsaḥ tu mahā bāho
duḥkham āptum ayogataḥ |
yogayuktaḥ munirbrahma
nacireṇa adhigacchati ||)
--
Meaning :
Right Renunciation of action (karma) happens with the help of yoga only O mahābāhu, (arjuna) ! Without right understanding of the basis of yoga, one has to suffer a lot in achieving such disposition of mind where one can do this (right renuciation of action). With the help of yoga a practicing noble aspirant realizes Brahman without delay.
--
Chapter 5, śloka 7,
yogayukto viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātātmā
kurvannapi na lipyate ||
--
(yogayuktaḥ viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātmā
kurvan api na lipyate ||)
--
Meaning :
Such a One of pure mind and with the help of discrimination who has control over his mind (intellect), body and organs, so well-established in yoga, one who has realized the identity of the consciousness of one's own as the Consciousness that is manifest as world and all the beings of the world, though lets the actions happen (or not happen) in their own course, never entertains the idea that he is in any way, involved in doing those actions that seem to be done by him.
--
Chapter 8, śloka 27,
naite sṛtī pārtha jānan-
yogī muhyati kaścana |
tasmātsarveṣu kāleṣu
yogayukto bhavārjuna ||
--
(na ete sṛtī pārtha jānan
yogī muhyati kaścana |
tasmāt-sarveṣu kāleṣu
yogayuktaḥ bhavārjuna ||)
--
--
Meaning :
These two different paths* are available to one who practises the way of 'Yoga'. Therefore O arjuna! keep on practising Yoga at all times.
( *The two paths (’शुक्ल’, shukla and ’कृष्ण’/ ’kṛṣṇa’) as described in the previous śloka 26 of this chapter 8)
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’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’
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’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - योग का अवलंबन लेनेवाला,
अध्याय 5, श्लोक 6,
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
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(संन्यासः तु महा बाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः ।
योगयुक्तः मुनिर्ब्रह्म नचिरेण अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन) योग का अवलंबन लिए बिना कर्म का सम्यक् और परिपूर्ण त्याग करने का प्रयास क्लेश का कारण होता है । जबकि योग का अवलंबन लेनेवाला मुनि (अभ्यासरत मनुष्य) शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 7,
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतातात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
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(योगयुक्तः विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते ॥)
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भावार्थ :
योग में सम्यकतया स्थित हुआ विशुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य जिसने अपने मन-बुद्धि इन्द्रियों को विवेकपूर्वक वश में कर लिया है, ऐसा वह आत्मा (मनुष्य) जिसने सबमें विद्यमान आत्मा (ईश्वरीय चेतना) और अपने में विद्यमान अपने अस्तित्व की चेतना की परस्पर अभिन्नता को जान लिया हो, (प्रारब्धवश) विभिन्न कर्मों को करते हुए भी, स्वयं के अपने ’स्वतन्त्र कर्ता’ होने के, कर्तापन के अभिमान में लिप्त नहीं होता ।
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अध्याय 8, श्लोक 27,
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नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥
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(न एते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्-सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥)
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भावार्थ :
इन दोनों मार्गों को* जानता हुआ कोई भी योगी मोहबुद्धि से ग्रस्त नहीं होता, अर्थात् मृत्यु के बाद भविष्य में होनेवाली उसकी गति / अवस्था के बारे में उसे दुविधा नहीं होती ।
इसलिए हे अर्जुन! तुम सभी कालों में, सदैव ही योगयुक्त हो रहो ।
(*इसी अध्याय 8 में पिछले श्लोक, क्रमांक 26 में वर्णित ’शुक्ल’ तथा ’कृष्ण’ गतियाँ)
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’योगयुक्तः’ / ’yogayuktaḥ’ - one following the way of yoga with due understanding of its fundamentals.
Chapter 5, śloka 6,
saṃnyāsastu mahābāho
duḥkhamāptumayogataḥ |
yogayukto munirbrahma
nacireṇādhigacchati ||
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(saṃnyāsaḥ tu mahā bāho
duḥkham āptum ayogataḥ |
yogayuktaḥ munirbrahma
nacireṇa adhigacchati ||)
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Meaning :
Right Renunciation of action (karma) happens with the help of yoga only O mahābāhu, (arjuna) ! Without right understanding of the basis of yoga, one has to suffer a lot in achieving such disposition of mind where one can do this (right renuciation of action). With the help of yoga a practicing noble aspirant realizes Brahman without delay.
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Chapter 5, śloka 7,
yogayukto viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātātmā
kurvannapi na lipyate ||
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(yogayuktaḥ viśuddhātmā
vijitātmā jitendriyaḥ |
sarvabhūtātmabhūtātmā
kurvan api na lipyate ||)
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Meaning :
Such a One of pure mind and with the help of discrimination who has control over his mind (intellect), body and organs, so well-established in yoga, one who has realized the identity of the consciousness of one's own as the Consciousness that is manifest as world and all the beings of the world, though lets the actions happen (or not happen) in their own course, never entertains the idea that he is in any way, involved in doing those actions that seem to be done by him.
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Chapter 8, śloka 27,
naite sṛtī pārtha jānan-
yogī muhyati kaścana |
tasmātsarveṣu kāleṣu
yogayukto bhavārjuna ||
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(na ete sṛtī pārtha jānan
yogī muhyati kaścana |
tasmāt-sarveṣu kāleṣu
yogayuktaḥ bhavārjuna ||)
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Meaning :
These two different paths* are available to one who practises the way of 'Yoga'. Therefore O arjuna! keep on practising Yoga at all times.
( *The two paths (’शुक्ल’, shukla and ’कृष्ण’/ ’kṛṣṇa’) as described in the previous śloka 26 of this chapter 8)
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