Wednesday, October 15, 2014

आज का श्लोक, ’योगः’ / ’yogaḥ’

आज का श्लोक, ’योगः’ / ’yogaḥ’
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’योगः’ / ’yogaḥ’ - योग की विधि,

अध्याय 2, श्लोक 48,

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
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(योगस्थः  कुरु  कर्माणि  सङ्गम्  त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धि-असिद्ध्योः समः भूत्वा समत्वम् योगः उच्यते ॥)
भावार्थ :
(देह, मन, बुद्धि या प्रकृति से) किए जानेवाले कर्मों से अपना तादात्म्य न करते हुए, अर्थात् उनकी संगति को त्यागते हुए, बुद्धियोग में स्थित रहकर, सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता को समान समझते हुए कर्म करो, इस प्रकार की समत्व-बुद्धि ही योग है ।
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अध्याय 2, श्लोक 50,

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
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(बुद्धियुक्तः जहाति इह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्मात्-योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।)
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भावार्थ :
समबुद्धि रखनेवाला मनुष्य शुभ तथा अशुभ, दोनों ही प्रकार के कर्मों को इसी लोक में (जीवित रहते हुए ही) भली प्रकार से त्याग देता है (-कर्मसंन्यास), इसलिए (समत्वबुद्धि के माध्यम से योगरत हो जाओ, क्योंकि योग का तात्पर्य है कर्म करने के कौशल में कुशल हो जाना ।
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अध्याय 4, श्लोक 2,

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
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(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परंतपः ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
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अध्याय 4, श्लोक 3,
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स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥
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(सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् ॥)
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भावार्थ :
वही पुरातन योग मेरे द्वारा आज तुम्हारे लिए कहा गया, क्योंकि तुम मेरे भक्त और प्रिय सखा हो और यह (योग) अत्यन्त श्रेष्ठ एक रहस्य है, इसलिए ।
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अध्याय 6, श्लोक 16,

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
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(न अति अश्नतः योगः अस्ति न च एकान्तम् अनश्नतः ।
न च अति स्वप्नशीलस्य जाग्रतः न एव च अर्जुन ॥)
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भावार्थ :
यह योगसाधन हे अर्जुन ! न तो बहुत खानेवाले के लिए और न बिल्कुल ही न खाने वाले के लिए, न तो बहुत सोनेवाले के लिए, और न बहुत जागते रहने वाले के लिए सरल है ।
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अध्याय 6, श्लोक 17,

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
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(युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगः भवति दुःखहा ॥)
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भावार्थ :
जिसका आहार-विहार मर्यादित है, जिसकी विभिन्न कर्मों में की जानेवाली चेष्टाएँ भी इसी भाँति मर्यादित हैं, जिसकी निद्रा तथा जागृति भी मर्यादा में है, उसके लिए योग दुःखों का नाश करनेवाला हो जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 23,

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
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(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
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भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
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अध्याय 6, श्लोक 33

अर्जुन उवाच :

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥
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(यः अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्य अहम् न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिम् स्थिराम् ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने कहा; ’हे मधुसूदन (कृष्ण)! आपके द्वारा (श्लोक 29 से 32 तक) समतायुक्त योग के विषय में यह जो कहा गया, अपने मन के चञ्चल होने से मैं उसका नित्य आचरण करने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ ।
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अध्याय 6, श्लोक 36,

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
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(असंयतात्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्यः अवाप्तुम् उपायतः ॥)
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भावार्थ :
जिसके मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि वश में नहीं हैं, उसके लिए योग की प्राप्ति करना अत्यन्त कठिन है, ऐसा मेरा मत है । किन्तु जिसके मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ वश में हैं उसके द्वारा यत्न किए जाने पर उचित उपाय द्वारा उसे योग की प्राप्ति अवश्य संभव है ।  
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Chapter 2, śloka 48,

yogasthaḥ kuru karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya |
siddhyasiddhyoḥ samo bhūtvā
samatvaṃ yoga ucyate ||
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(yogasthaḥ  kuru  karmāṇi
saṅgam  tyaktvā dhanañjaya |
siddhi-asiddhyoḥ samaḥ bhūtvā
samatvam yogaḥ ucyate ||)
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Meaning :
Staying in the right understanding (wisdom), without mentally associating yourself  with  the notions 'I do' / 'I don't do', let the actions take place. Welcome the success or failure in your attempts with the same spirit of equanimity. (This) equanimity is called 'yoga' / 'samatva-yoga'.
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’योगः’ / ’yogaḥ’ - the practice of yoga,

Chapter 2, śloka 50,

buddhiyukto jahātīha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmādyogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam ||
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(buddhiyuktaḥ jahāti iha
ubhe sukṛtaduṣkṛte |
tasmāt-yogāya yujyasva
yogaḥ karmasu kauśalam |)
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Meaning :

One, who has attained Wisdom, is Wise, renounces the noble and ignoble both kinds of actions (by understanding the fact and refusing to accept the notion ; 'I do' / 'I don't do', - he is aware that actions / incidences, happen on their own.)
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Chapter 4, śloka 2,

evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
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(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayo viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogaḥ naṣṭaḥ paraṃtapaḥ ||)
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Meaning :
This yoga that was transferred in succession and was / is acquired traditionally (as described in śloka1) was / is known by the king-sages (rājarṣi), And in the long passage of time, the same has become almost lost to us.
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Chapter 4, śloka 3,

sa evāyaṃ mayā te:'dya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhakto:'si me sakhā ceti
rahasyaṃ hyetaduttamam ||
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(saḥ eva ayam mayā te adya
yogaḥ proktaḥ purātanaḥ |
bhaktaḥ asi me sakhā ca iti
rahasyam hi etat uttamam ||)
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Meaning :
The very same (Yoga) is imparted by Me unto you today, (as) you are My devotee, and also a beloved friend, and this mystery is the most holy, sacred and a deep secret.
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Chapter 6, śloka 16,

nātyaśnatastu yogo:'sti
na caikāntamanaśnataḥ |
na cāti svapnaśīlasya
jāgrato naiva cārjuna ||
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(na ati aśnataḥ yogaḥ asti
na ca ekāntam anaśnataḥ |
na ca ati svapnaśīlasya
jāgrataḥ na eva ca arjuna ||)
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Meaning :
This practice of yoga is not (easy) for one who takes food in big quantities, neither for one, who keeps on fasting strictly. This practice of yoga is not (easy) for one who sleeps too much, nor for one who keeps awake always.
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Note :
In summary, yoga is (easy) for one, who is moderate in food and sleep.
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Chapter 6, śloka 17,

yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogo bhavati duḥkhahā ||
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(yuktāhāravihārasya
yuktaceṣṭasya karmasu |
yuktasvapnāvabodhasya
yogaḥ bhavati duḥkhahā ||)
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Meaning :
One taking diet in moderate quantities, who makes efforts in various actions according to the need of the moment and his within abilities, who has regular sleep and waking hours, yoga removes all his sufferings
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Chapter 6, śloka 23,

taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
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(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
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Meaning :
Know what is named 'yoga', is that which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
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Chapter 6, śloka 33

arjuna uvāca :

yo:'yaṃ yogastvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasyāhaṃ na paśyāmi
cañcalatvātsthitiṃ sthirām ||
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(yaḥ ayam yogaḥ tvayā proktaḥ
sāmyena madhusūdana |
etasya aham na paśyāmi
cañcalatvāt sthitim sthirām ||)
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Meaning :
arjuna said :
"O madhusūdana (kṛṣṇa)!" I am unable to see how with this fickle nature of mind, I could practice with steady and firm efforts, this yoga, which has been described by You for me!"
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Chapter 6, śloka 36,

asaṃyatātmanā yogo 
duṣprāpa iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyo:
'vāptumupāyataḥ ||
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(asaṃyatātmanā yogaḥ 
duṣprāpaḥ iti me matiḥ |
vaśyātmanā tu yatatā śakyaḥ
avāptum upāyataḥ ||)
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Meaning :
I say: attaining yoga is very difficult for one who has no control over his body, mind and senses. And it is also true that Yoga is attainable for one who, keeping his body mind and senses under control makes right efforts for this goal.
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