आज का श्लोक, ’योगिनः’ / ’yoginaḥ’
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’योगिनः’ / ’yoginaḥ’ - योगीजन (बहुवचन), योगी (एकवचन) का, योगी (एकवचन) के संबंध में, के लिए,
यदि ’योगिनः’ पद के साथ क्रियापद संयुक्त नहीं है, तो यह एकवचन होगा, यदि क्रियापद संयुक्त है, तो यह बहुवचन होगा ।
टिप्पणी :
’योगी’ यह पद प्रथमा विभक्ति, बहुवचन में तथा पञ्चमी तथा षष्ठी विभक्ति में, एकवचन में ’योगिनः’ यह रूप ले लेता है ।
--
अध्याय 4, श्लोक 25,
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवापजुह्वति ॥
--
(दैवम् एव अपरे यज्ञम् योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नौ अपरे यज्ञम् यज्ञ्नेन एव उपजुह्वति ॥)
--
भावार्थ :
दूसरे योगीजन देवताओं के (साकार स्वरूप के) पूजनरूपी यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं जबकि अन्य कुछ योगी, ब्रह्म (आत्मा के निराकार स्वरूप) रूपी अग्नि में यज्ञ (आत्मा में ज्ञान द्वारा स्थित हो रहने) के द्वारा ही हवन किया करते हैं ।
--
अध्याय 5, श्लोक 11,
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
--
(कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैः इन्द्रियैः अपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गम् त्यक्त्वा आत्मशुद्धये ॥
--
भावार्थ :
कर्म में आसक्ति को त्यागकर, योगीजन शरीर, मन, बुद्धि या केवल इन्द्रियों से भी आत्मशुद्धि के लिए ही कर्म का अनुष्ठान किया करते हैं । चित्त-शुद्धि
--
अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
--
(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
--
जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
--
अध्याय 8, श्लोक 14,
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
--
(अनन्यचेताः सततम् यः माम् स्मरति नित्यशः ।
तस्य अहम् सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥)
--
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! अपने-आपके मुझसे अनन्य होने की बुद्धि रखते हुए जो मुझे सदा स्मरण रखता है, उस नित्य मुझमें संलग्नचित्त के लिए मैं सदा ही अत्यन्त सुलभ्य हूँ ।
--
अध्याय 8, श्लोक 23,
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥
--
(यत्र काले तु अनावृत्तिम् आवृत्तिम् च एव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तम् कालम् वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥)
--
भावार्थ :
जिस काल (अवस्था, स्थिति, मार्ग) में शरीर को त्यागकर जानेवाले योगी का पुनः देह में जन्म नहीं होता, अथवा पुनः देह में जन्म होता है, हे भरतर्षभ (अर्जुन) ! उस काल (मार्ग) के विषय में कहूँगा ।
--
अध्याय 15, श्लोक 11,
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥
--
(यतन्तः योगिनः च एनम् पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम् ।
यतन्तः अपि अकृतात्मानः न एनम् पश्यन्ति अचेतसः ॥)
--
भावार्थ :
(यद्यपि) इस आत्मतत्व को, इसके लिए यत्न करनेवाले योगी अपने ही अन्तर्हृदय में अवस्थित देखते हैं, (किन्तु) ऐसे अज्ञानीजन, जिन्होंने अपने अन्तःकरण को वैराग्य के अभ्यास द्वारा शुद्ध नहीं किया होता (ऐसे अकृतजन) बहुत यत्न करते हुए भी इसे नहीं देख पाते ।
--
’योगिनः’ / ’yoginaḥ’ - yogī (plural), of a yogī (singular),
Note :
The term 'योगी' / 'yogī ' in nominative case plural and also in genitive case singular takes the form ’योगिनः’ / ’yoginaḥ’, therefore the same word is used in these two ways.
If there is a verb attached with this term , then it is treated as plural nominative, if no verb is attached with this term, it is treated as singular genetive.
Chapter 4, śloka 25,
daivamevāpare yajñaṃ
yoginaḥ paryupāsate |
brahmāgnāvapare yajñaṃ
yajñenaivāpajuhvati ||
--
(daivam eva apare yajñam
yoginaḥ paryupāsate |
brahmāgnau apare yajñam
yajñnena eva upajuhvati ||)
--
Meaning :
Some yogi, perform the sacrifice (yajña) in the way of worshiping the divine forms of Brahman, while others dedicate offerings (havana) in the sacrificial Fire (Self / Brahman) by way of abiding in Brahman through contemplation of Brahman / Self.
--
Chapter 5, śloka 11,
kāyena manasā buddhyā
kevalairindriyairapi |
yoginaḥ karma kurvanti
saṅgaṃ tyaktvātmaśuddhaye ||
--
(kāyena manasā buddhyā
kevalaiḥ indriyaiḥ api |
yoginaḥ karma kurvanti saṅgam
tyaktvā ātmaśuddhaye ||
--
Meaning :
With a view to attain the purity of mind (ātmaśuddhi / citta-śuddhi) yogis perform the action (karma) by means of the body, mind or even by the senses only, without clinging to the action (karma).
--
Chapter 6, śloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
--
(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
--
Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
--
Chapter 8, śloka 14,
ananyacetāḥ satataṃ yo
māṃ smarati nityaśaḥ |
tasyāhaṃ sulabhaḥ pārtha
nityayuktasya yoginaḥ ||
--
(ananyacetāḥ satatam yaḥ
mām smarati nityaśaḥ |
tasya aham sulabhaḥ pārtha
nityayuktasya yoginaḥ ||)
--
Meaning :
One who with undivided love for ME, whole-heartedly remembers / thinks of ME always, O pārtha (arjuna), I AM also easily available to such a devotee with his dedicated mind to ME, always.
--
Chapter 8, śloka 23,
yatra kāle tvanāvṛtti-
māvṛttiṃ caiva yoginaḥ |
prayātā yānti taṃ kālaṃ
vakṣyāmi bharatarṣabha ||
--
(yatra kāle tu anāvṛttim
āvṛttim ca eva yoginaḥ |
prayātā yānti tam kālam
vakṣyāmi bharatarṣabha ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! I shall speak you about the path that is followed by those yogī s that have discarded the physical body and accordingly either return not in a new birth in another human body, or return and born in such a next birth in a human body.
--
Chapter 15, śloka 11,
yatanto yoginaścainaṃ
paśyantyātmanyavasthitam |
yatanto:'pyakṛtātmāno
nainaṃ paśyantyacetasaḥ ||
--
(yatantaḥ yoginaḥ ca enam
paśyanti ātmani avasthitam |
yatantaḥ api akṛtātmānaḥ
na enam paśyanti acetasaḥ ||)
--
Meaning :
The aspiring yogī-s who practice discrimination (viveka) and dispassion (vairāgya) see this Self in their own heart as the ever-abiding Reality. But those ignorant, who have not cleansed and purified their heart and mind, despite making great efforts towards the same, can never see this Self, .
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’योगिनः’ / ’yoginaḥ’ - योगीजन (बहुवचन), योगी (एकवचन) का, योगी (एकवचन) के संबंध में, के लिए,
यदि ’योगिनः’ पद के साथ क्रियापद संयुक्त नहीं है, तो यह एकवचन होगा, यदि क्रियापद संयुक्त है, तो यह बहुवचन होगा ।
टिप्पणी :
’योगी’ यह पद प्रथमा विभक्ति, बहुवचन में तथा पञ्चमी तथा षष्ठी विभक्ति में, एकवचन में ’योगिनः’ यह रूप ले लेता है ।
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अध्याय 4, श्लोक 25,
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवापजुह्वति ॥
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(दैवम् एव अपरे यज्ञम् योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नौ अपरे यज्ञम् यज्ञ्नेन एव उपजुह्वति ॥)
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भावार्थ :
दूसरे योगीजन देवताओं के (साकार स्वरूप के) पूजनरूपी यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं जबकि अन्य कुछ योगी, ब्रह्म (आत्मा के निराकार स्वरूप) रूपी अग्नि में यज्ञ (आत्मा में ज्ञान द्वारा स्थित हो रहने) के द्वारा ही हवन किया करते हैं ।
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अध्याय 5, श्लोक 11,
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
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(कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैः इन्द्रियैः अपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गम् त्यक्त्वा आत्मशुद्धये ॥
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भावार्थ :
कर्म में आसक्ति को त्यागकर, योगीजन शरीर, मन, बुद्धि या केवल इन्द्रियों से भी आत्मशुद्धि के लिए ही कर्म का अनुष्ठान किया करते हैं । चित्त-शुद्धि
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अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
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(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
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जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 14,
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
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(अनन्यचेताः सततम् यः माम् स्मरति नित्यशः ।
तस्य अहम् सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! अपने-आपके मुझसे अनन्य होने की बुद्धि रखते हुए जो मुझे सदा स्मरण रखता है, उस नित्य मुझमें संलग्नचित्त के लिए मैं सदा ही अत्यन्त सुलभ्य हूँ ।
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अध्याय 8, श्लोक 23,
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥
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(यत्र काले तु अनावृत्तिम् आवृत्तिम् च एव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तम् कालम् वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥)
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भावार्थ :
जिस काल (अवस्था, स्थिति, मार्ग) में शरीर को त्यागकर जानेवाले योगी का पुनः देह में जन्म नहीं होता, अथवा पुनः देह में जन्म होता है, हे भरतर्षभ (अर्जुन) ! उस काल (मार्ग) के विषय में कहूँगा ।
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अध्याय 15, श्लोक 11,
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥
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(यतन्तः योगिनः च एनम् पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम् ।
यतन्तः अपि अकृतात्मानः न एनम् पश्यन्ति अचेतसः ॥)
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भावार्थ :
(यद्यपि) इस आत्मतत्व को, इसके लिए यत्न करनेवाले योगी अपने ही अन्तर्हृदय में अवस्थित देखते हैं, (किन्तु) ऐसे अज्ञानीजन, जिन्होंने अपने अन्तःकरण को वैराग्य के अभ्यास द्वारा शुद्ध नहीं किया होता (ऐसे अकृतजन) बहुत यत्न करते हुए भी इसे नहीं देख पाते ।
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’योगिनः’ / ’yoginaḥ’ - yogī (plural), of a yogī (singular),
Note :
The term 'योगी' / 'yogī ' in nominative case plural and also in genitive case singular takes the form ’योगिनः’ / ’yoginaḥ’, therefore the same word is used in these two ways.
If there is a verb attached with this term , then it is treated as plural nominative, if no verb is attached with this term, it is treated as singular genetive.
Chapter 4, śloka 25,
daivamevāpare yajñaṃ
yoginaḥ paryupāsate |
brahmāgnāvapare yajñaṃ
yajñenaivāpajuhvati ||
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(daivam eva apare yajñam
yoginaḥ paryupāsate |
brahmāgnau apare yajñam
yajñnena eva upajuhvati ||)
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Meaning :
Some yogi, perform the sacrifice (yajña) in the way of worshiping the divine forms of Brahman, while others dedicate offerings (havana) in the sacrificial Fire (Self / Brahman) by way of abiding in Brahman through contemplation of Brahman / Self.
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Chapter 5, śloka 11,
kāyena manasā buddhyā
kevalairindriyairapi |
yoginaḥ karma kurvanti
saṅgaṃ tyaktvātmaśuddhaye ||
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(kāyena manasā buddhyā
kevalaiḥ indriyaiḥ api |
yoginaḥ karma kurvanti saṅgam
tyaktvā ātmaśuddhaye ||
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Meaning :
With a view to attain the purity of mind (ātmaśuddhi / citta-śuddhi) yogis perform the action (karma) by means of the body, mind or even by the senses only, without clinging to the action (karma).
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Chapter 6, śloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
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(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
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Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
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Chapter 8, śloka 14,
ananyacetāḥ satataṃ yo
māṃ smarati nityaśaḥ |
tasyāhaṃ sulabhaḥ pārtha
nityayuktasya yoginaḥ ||
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(ananyacetāḥ satatam yaḥ
mām smarati nityaśaḥ |
tasya aham sulabhaḥ pārtha
nityayuktasya yoginaḥ ||)
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Meaning :
One who with undivided love for ME, whole-heartedly remembers / thinks of ME always, O pārtha (arjuna), I AM also easily available to such a devotee with his dedicated mind to ME, always.
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Chapter 8, śloka 23,
yatra kāle tvanāvṛtti-
māvṛttiṃ caiva yoginaḥ |
prayātā yānti taṃ kālaṃ
vakṣyāmi bharatarṣabha ||
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(yatra kāle tu anāvṛttim
āvṛttim ca eva yoginaḥ |
prayātā yānti tam kālam
vakṣyāmi bharatarṣabha ||)
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Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! I shall speak you about the path that is followed by those yogī s that have discarded the physical body and accordingly either return not in a new birth in another human body, or return and born in such a next birth in a human body.
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Chapter 15, śloka 11,
yatanto yoginaścainaṃ
paśyantyātmanyavasthitam |
yatanto:'pyakṛtātmāno
nainaṃ paśyantyacetasaḥ ||
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(yatantaḥ yoginaḥ ca enam
paśyanti ātmani avasthitam |
yatantaḥ api akṛtātmānaḥ
na enam paśyanti acetasaḥ ||)
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Meaning :
The aspiring yogī-s who practice discrimination (viveka) and dispassion (vairāgya) see this Self in their own heart as the ever-abiding Reality. But those ignorant, who have not cleansed and purified their heart and mind, despite making great efforts towards the same, can never see this Self, .
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