Monday, October 6, 2014

आज का श्लोक, ’योगी’ / ’yogī’

आज का श्लोक, ’योगी’ / ’yogī’
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’योगी’ / ’yogī’ - आध्यात्मिक अभ्यास करनेवाला, योगसाधना करनेवाला,

अध्याय 5, श्लोक 24,
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योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव च ।
योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥
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(यः अन्तःसुखः अन्तरारामः तथा अन्तर्ज्योतिः एव यः ।
सः योगी ब्रह्मनिर्वाणम् ब्रह्मभूतः अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष अपने ही भीतर (आत्मा में ही) सुखी, रमण करता है, तथा अपना प्रकाश अपने ही भीतर प्राप्त करता है, वह योगी निर्वाणरूपी ब्रह्म से एकत्व प्राप्तकर, उसके ही स्वरूप का हो जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
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(अनाश्रितः कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति यः ।
सः सन्न्यासी च योगी च न निरग्निः न च अक्रियः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं  - वह नहीं, जो कि  हठपूर्वक अग्नि को नहीं छूता, या दूसरे सारे कर्मों को त्याग देता है, बल्कि वह पुरुष जो कि कर्म के फल पर आश्रित नहीं होता, अर्थात् फल अनुकूल या प्रतिकूल क्या होता है इस विषय में जिसका कोई आग्रह नहीं होता, और जो अपने लिए निर्धारित कर्तव्य को पूर्ण करने के ध्येय से किसी कर्म में संलग्न होता है, वास्तविक अर्थों में संन्यासी (जिसने कर्म को त्याग दिया है) और वही कर्मयोगी अर्थात् कर्म करते हुए भी उसे मोक्ष का साधन बना लेनेवाला कुशल योगी होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 2,

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
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(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
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भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
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अध्याय 6, श्लोक 8,

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥
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(ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः विजितेन्द्रियः ।
युक्तः इति उच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥)
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भावार्थ :
जिसका अन्तःकरण ज्ञान (सापेक्ष स्तर पर जीव के रूप में अपने जगत् के साथ अपना संबंध) तथा विज्ञान ( निरपेक्ष स्तर पर चेतना के रूप में ईश्वर से अपनी अभिन्नता) से परम तृप्त है, और जो उस अभिन्नता में अचल है, जो संयतेन्द्रिय है, इस प्रकार से योग में भली-भाँति अवस्थित उस योगी के लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण एक समान हैं, ...
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अध्याय 6, श्लोक 10,
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योगी युञ्जीत सततात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
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(योगी युञ्जीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीः अपरिग्रहः ॥)
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भावार्थ :
योग-साधन करनेवाला को अपने मन-इन्द्रियों आदि को संयत रखते हुए आशारहित, संग्रहरहित, अकेले, एकान्त में स्थित होकर, आत्मा को निरन्तर परमात्मा (के ध्यान) में संलग्न रखे ।
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अध्याय 6, श्लोक 15,

युञ्जनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थानमधिगच्छति ॥
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(युञ्जन् एवम् सदा आत्मानम् योगी नियतमानसः ।
शान्तिम् निर्वाणपरमाम् मत्संस्थाम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
आपने-आप को (अपने मन, चित्त को) सतत मुझमें संलग्न रखते हुए योगी इस प्रकार से मुझमें स्थित निर्वाणरूपी परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 28,

युञ्जनेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
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(युञ्जन् एवं सदा आत्मानम् योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम् अत्यन्तम् सुखम् अश्नुते ॥)
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भावार्थ :
पापरहित योगी अपने चित्त को निरन्तर उस ब्रह्म में संलग्न रखते हुए अनायास ही ब्रह्म के संस्पर्श के अनन्त आनन्द को अनुभव करने लगता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 31,

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
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(सर्वभूतस्थितम् यो माम् भजति एकत्वम्-आस्थितः ।
सर्वथा वर्तमानः अपि सः योगी मयि वर्तते ॥)
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भावार्थ :
जो मुझ एकमेव चेतन तत्त्व को सब प्राणियों में समान रूप से अवस्थित जानकर अपने आपको उस तत्त्व से अभिन्न जानता है, ऐसा योगी बाह्यतः सब प्रकार से एक सामान्य मनुष्य की भाँति व्यवहार करता हुआ भी मुझमें ही व्यवहारशील होता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 32,

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
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(आत्मौपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति यः अर्जुनः ।
सुखम् वा यदि वा दुःखम् सः योगी परमः मतः ॥)
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भावार्थ :
सुख हो या दुःख, किसी भी परिस्थिति में, हे अर्जुन! अपनी (चेतन आत्मा की चेतना की) उपमा से सर्वत्र एक समान व्याप्त चैतन्य आत्मा को ही, जो देखता है, वह योगी परम (श्रेष्ठ) माना जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 45,

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।
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(प्रयत्नात् यतमानसः तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धः ततः याति पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
किन्तु (कोई योगाभ्यास करनेवाला योग में पूर्णता की प्राप्ति होने से पहले ही यदि देहत्याग कर देता है तो, ... श्लोक 37 से 44 तक के सन्दर्भ में), निरन्तर अनेक जन्मों तक भी अभ्यास करता हुआ संपूर्ण पापों से रहित शुद्ध अन्तःकरण हुआ ऐसा योगी उसके पश्चात् परा गति अर्थात् योग की पूर्णता को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 46,

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥
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(तपस्विभ्यः अधिकः योगी ज्ञानिभ्यः अपि मतः अधिकः ।
कर्मिभ्यः च अधिकः योगी तस्मात् योगी भव अर्जुन ॥)
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भावार्थ :
योगी निश्चित ही तपस्वियों की अपेक्षा अधिक (श्रेष्ठ) है, योगी निश्चित ही (शास्त्र)ज्ञानियों की अपेक्षा अधिक (श्रेष्ठ) है, इसी प्रकार से योगी अवश्य ही (सकाम) कर्म करनेवालों से भी अधिक (श्रेष्ठ) है, इसलिए हे अर्जुन! योगी होओ ।
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टिप्पणी :
तपस्वी ’मुक्ति’ के लिए तप कर रहा हो यह आवश्यक नहीं, ज्ञानी को ब्रह्म को केवल सैद्धान्तिक (शास्त्र / शब्दब्रह्म) का ज्ञान ही हो, उसने उसका साक्षात्कार किया हो ये आवश्यक नहीं, इसी प्रकार कर्म का आग्रह करनेवाला निष्काम कर्म कर रहा हो यह आवश्यक नहीं, किन्तु योगी अवश्य ही (श्लोक 44 में वर्णित) का भी अतिक्रमण कर जाता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 25,

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥
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(धूमः रात्रिः तथा कृष्णः षण्मासाः दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसम् ज्योतिः योगी प्राप्य निवर्तते ॥)
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भावार्थ :
धूम (अग्नि की तुलना में) रात्रि तथा कृष्ण-पक्ष, छः मास दक्षिणायन के, वह काल और स्थिति है, जिसमें देह-त्याग करने के बाद योगी पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 27,
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नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥
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(न एते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्-सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥)
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भावार्थ :
इन दोनों मार्गों को* जानता हुआ कोई भी योगी मोहबुद्धि से ग्रस्त नहीं होता, अर्थात् मृत्यु के बाद भविष्य में होनेवाली उसकी गति / अवस्था के बारे में उसे दुविधा नहीं होती ।
इसलिए हे अर्जुन! तुम सभी कालों में, सदैव ही योगयुक्त हो रहो ।
(*इसी अध्याय 8 में पिछले श्लोक, क्रमांक 26 में वर्णित ’शुक्ल’ तथा ’कृष्ण’ गतियाँ)
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अध्याय 8, श्लोक 28,
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी 
परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
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(वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदम् विदित्वा योगी
परम् स्थानम् उपैति च आद्यम् ॥)
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भावार्थ :
वेदों ( के अध्ययन), यज्ञों (के अनुष्ठान), तपों (के पूर्ण करने) तथा विभिन्न प्रकार के दान देने आदि से जिस पुण्यफल की प्राप्ति निर्दिष्ट की गई है, योगी निःसन्देह उस सब को लांघकर इस आद्य सनातन एवं शाश्वत् स्थान को प्राप्त हो जाता है ।
[टिप्पणी : समस्त पुण्यफल उनके उपभोग के साथ ही नष्ट हो जाते हैं, किन्तु योगी (इस अध्याय के श्लोक 11 में वर्णित) ’पद’ कॊ प्राप्त होकर उससे एक हो जाता है ।]
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अध्याय 12, श्लोक 14,

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः
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(सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मयि-अर्पित-मनोबुद्धिः यः मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥)
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भावार्थ :
मेरा वह भक्त, जो मुझमें ही परम सन्तोष पाता है, मुझमें ही जिसकी मन-बुद्धि सतत अर्पित है, मन-बुद्धि आदि सहित जिसकी सम्पूर्ण आत्मा अपने वश में है, ऐसा दृढनिश्चय योगी मुझे प्रिय है ।
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’योगी’ / ’yogī’ - an aspirant / seeker of truth / Reality, a spiritual seeker, one who practices yoga,

Chapter 5, śloka 24,

yo:'ntaḥsukho:'ntarārāma-
stathāntarjyotireva ca |
sa yogī brahmanirvāṇaṃ
brahmabhūto:'dhigacchati ||
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(yaḥ antaḥsukhaḥ antarārāmaḥ
tathā antarjyotiḥ eva yaḥ |
saḥ yogī brahmanirvāṇam
brahmabhūtaḥ adhigacchati ||)
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Meaning :
One who is happy and content in the Self, one who sports in, finds love and joy within, one who is a light unto oneself, is verily a  yogī, the one having known Brahman, -of the form of nirvāṇa, has become one with Brahman .
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Chapter 6, shloka 1,

śrībhagavānuvāca :

anāśritaḥ karmaphalaṃ
kāryaṃ karma karoti yaḥ |
sa sannyāsī ca yogī ca
na niragnirna cākriyaḥ ||
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(anāśritaḥ karmaphalam
kāryam karma karoti yaḥ |
saḥ sannyāsī ca yogī ca
na niragniḥ na ca akriyaḥ ||)
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Meaning :
bhagavān (Lord) śrīkṛṣṇa said -
Neither the one who has taken a vow of touching not the fire (that means begging for the food and not cook oneself, a condition a traditional sannyāsī is expected to observe), nor one who abstains from all other such works in order to live as one, but he, who without thinking of and depending upon the result of actions, performs his duties is  a true yogī  or  saṃnyāsī .
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Chapter 6, śloka 2,

yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
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(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
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Meaning :
What is described as sannyāsa, Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava! (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire
(saṅkalpa-vṛtti).
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Chapter 6, śloka 8,

jñānavijñānatṛptātmā
kūṭastho vijitendriyaḥ |
yukta ityucyate yogī
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||
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(jñānavijñānatṛptātmā
kūṭasthaḥ vijitendriyaḥ |
yuktaḥ iti ucyate yogī
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||)
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Meaning :
One established happily and perfectly content in the proper understanding of the relative knowledge ( jñāna of oneself as a soul and one's world, and their relationship) and the ultimate wisdom (vijñāna of one's identity as consciousness only and relationship / one-ness with the Brahmam / ātman), one who keeping senses well under control,stays firmly unmoved in that stance of his, for him a lump of earth, a stone and gold are of equal value.
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Chapter 6, śloka 10,

yogī yuñjīta satatāt-
mānaṃ rahasi sthitaḥ |
ekākī yatacittātmā
nirāśīraparigrahaḥ ||
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(yogī yuñjīta satatam
ātmānam rahasi sthitaḥ |
ekākī yatacittātmā
nirāśīḥ aparigrahaḥ ||)
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Meaning :
Practicing yoga means, one should contemplate on the (nature of) Self without a break, while keeping away from all else, living alone, free of all thought of world and its contents.
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Chapter 6, śloka 15,

yuñjanevaṃ sadātmānaṃ
yogī niyatamānasaḥ |
śāntiṃ nirvāṇaparamāṃ
matsaṃsthānamadhigacchati ||
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(yuñjan evam sadā ātmānam
yogī niyatamānasaḥ |
śāntim nirvāṇaparamām
matsaṃsthām adhigacchati ||)
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Meaning :
In this way a yogī, keeping himself (his mind and attention) always fixed in Me, attains the peace supreme of nirvāṇa, which has I AM the abode.
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Chapter 6, śloka 28,

yuñjanevaṃ sadātmānaṃ
yogī vigatakalmaṣaḥ |
sukhena brahmasaṃsparśam-
atyantaṃ sukhamaśnute ||
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(yuñjan evaṃ sadā ātmānam
yogī vigatakalmaṣaḥ |
sukhena brahmasaṃsparśam
atyantam sukham aśnute ||)
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Meaning :
Freed from the sins, the aspirant yogī fixing one's mind always upon the Self that is Reality only, easily attains the delight of the infinite bliss Which is That (Brahman).  
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Chapter 6, śloka 31,

sarvabhūtasthitaṃ yo māṃ
bhajatyekatvamāsthitaḥ |
sarvathā vartamāno:'pi
sa yogī mayi vartate ||
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(sarvabhūtasthitam yo mām
bhajati ekatvam-āsthitaḥ |
sarvathā vartamānaḥ api
saḥ yogī mayi vartate ||)
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Meaning :
One  who knows Me (The One and the only Consciousness) present in all beings, and shares Me in this way by realizing his identity with Me, though behaves as an ordinary human being, he ever does so with abiding in Me alone.
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Chapter 6, śloka 32,

ātmaupamyena sarvatra
samaṃ paśyati yo:'rjuna |
sukhaṃ vā yadi vā duḥkham
sa yogī paramo mataḥ ||
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(ātmaupamyena sarvatra
samam paśyati yaḥ arjunaḥ |
sukham vā yadi vā duḥkham
saḥ yogī paramaḥ mataḥ ||)
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Meaning :
arjuna ! In happiness or in pain, one who sees the same Self in him-self and all others everywhere, is a yogī great indeed.
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Chapter 6, śloka 45,

prayatnādyatamānastu
yogī saṃśuddhakilbiṣaḥ |
anekajanmasaṃsiddha-
stato yāti parāṃ gatim |
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(prayatnāt yatamānasaḥ tu
yogī saṃśuddhakilbiṣaḥ |
anekajanmasaṃsiddhaḥ
tataḥ yāti parām gatim ||)
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Meaning :
But a yogī who has even though fallen from the yoga, while making efforts with due trust in yoga, if dies before acquiring perfection, such a yogī after many births, attains the same (perfection) because of making continuous efforts, when his mind is cleansed of all sin.
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Chapter 6, śloka 46,

tapasvibhyo:'dhiko yogī
jñānibhyo:'pi mato:'dhikaḥ |
karmibhyaścādhiko yogī
tasmādyogī bhavārjuna ||
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(tapasvibhyaḥ adhikaḥ yogī
jñānibhyaḥ api mataḥ adhikaḥ |
karmibhyaḥ ca adhikaḥ yogī
tasmāt yogī bhava arjuna ||)
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Meaning :
yogī is no doubt superior to ascetic (tapasvī),  yogī is no doubt superior to scholar (jñānī), yogī is no doubt superior to a man insisting upon action (karmin), Therefore O arjuna! , aspire to be a yogī.
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Chapter 8, śloka 25,

dhūmo rātristathā kṛṣṇaḥ
ṣaṇmāsā dakṣiṇāyanam |
tatra cāndramasaṃ jyotir-
yogī prāpya nivartate ||
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(dhūmaḥ rātriḥ tathā kṛṣṇaḥ
ṣaṇmāsāḥ dakṣiṇāyanam |
tatra cāndramasam jyotiḥ
yogī prāpya nivartate ||)
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Meaning :
Having attained the knowledge partially (dhūma), night, the dark-fortnight of the Moon, and the six months of the southern course of the Sun (winter-solstice), are the times and ways indicative of the fate of a yogī, who (after enjoying fruits of his auspicious deeds in heavens) returns to the next birth as a human once again.
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Chapter 8, śloka 27,

naite sṛtī pārtha jānan-
yogī muhyati kaścana |
tasmātsarveṣu kāleṣu
yogayukto bhavārjuna ||
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(na ete sṛtī pārtha jānan
yogī muhyati kaścana |
tasmāt-sarveṣu kāleṣu
yogayukto bhavārjuna ||)
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Meaning :
These two different paths* are available to one who practises the way of 'Yoga'. Therefore O arjuna! keep on practicing Yoga at all times.
(*The two paths (’शुक्ल’, shukla and ’कृष्ण’, kṛṣṇa) as described in the previous śloka 26 of this chapter 8)
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Chapter 8, śloka 28,

vedeṣu yajñeṣu tapaḥsu caiva
dāneṣu yatpuṇyaphalaṃ pradiṣṭam |
atyeti tatsarvamidaṃ viditvā
yogī paraṃ sthānamupaiti cādyam ||
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(vedeṣu yajñeṣu tapaḥsu caiva
dāneṣu yat puṇyaphalam pradiṣṭam |
atyeti tat sarvam idam viditvā
yogī param sthānam upaiti ca ādyam ||)
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Meaning :
The yogī who knows this abode of The Supreme Reality (as explained in śloka 8 of this chapter 8) transcends all fruits that are obtained through the study of veda-s, performing the sacrifices of all kinds, or doing austerities and penances, (because they are destroyed with their enjoyments) while by knowing the indestructible, begin-less Supreme abode of oneself, one merges into That.
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Chapter 12, śloka 14,

santuṣṭaḥ satataṃ yogī
yatātmā dṛḍhaniścayaḥ |
mayyarpitamanobuddhir-
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ
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(santuṣṭaḥ satataṃ yogī
yatātmā dṛḍhaniścayaḥ |
mayi-arpita-manobuddhiḥ
yaḥ madbhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
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Meaning :
Always contented, abiding in Me moment to moment, and has firm resolve of practicing yoga. Having dedicated mind and intellect to Me,  such a devotee is beloved to Me.
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