Friday, October 17, 2014

आज का श्लोक, ’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’

आज का श्लोक,
’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’
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’योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’ - योग की पूर्णता हो जाने पर,

अध्याय 4, श्लोक 38,
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
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(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
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भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे  पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
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योगसंसिद्धः’ / ’yogasaṃsiddhaḥ’ - when the perfection of yoga is accomplished.

Chapter 4, śloka 38,

na hi jñānena sadṛśaṃ 
pavitramiha vidyate |
tatsvayaṃ yogasaṃsiddhaḥ 
kālenātmani vindati ||
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(na hi jñānena sadṛśaṃ 
pavitramiha vidyate |
tat svayam yogasaṃsiddhaḥ 
kālenātmani vindati ||)
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Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
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