Saturday, July 5, 2014

आज का श्लोक, ’समासेन’ / ’samāsena’

आज का श्लोक,  ’समासेन’ /  ’samāsena’ 
_________________________________

 ’समासेन’ /  ’samāsena’ - सारगर्भित रूप में, सारतः,

अध्याय 13, श्लोक 3,

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥
--
(तत् क्षेत्रम् यत् च यादृक् च यत् विकारी यतः च यत् ।
सः च यः यत्-प्रभावः च तत् समासेन मे श्रुणु ॥)
--
भावार्थ :
वह क्षेत्र (जिसे इस अध्याय के प्रथम क्षेत्र में ’शरीर’ कहा गया है) जो कुछ है, और जैसा (उसका स्वरूप और वास्तविकता) है, वह जिसका विकार है, और जिसके, जिस (कारण) से इस विकाररूपी इस क्षेत्र (के रूप) में परिणत हुआ है, वह जो और जैसे प्रभाववाला है, उसका साररूप में  वर्णन मुझसे सुनो ।
--
अध्याय 13, श्लोक 6,

इच्छाद्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रंसमासेन सविकारमुदाहृतम् ।
--
(इच्छा द्वेषः सुखम् दुःखम् सङ्घातः चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम्-उदाहृतम् ॥)
--
भावार्थ :
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, पञ्चतत्त्वों के सङ्घात (संयुक्त होने) से निर्मित देह, चेतना, तथा धृति, इन सब को सम्मिलित रूप से, इन विकारों सहित संक्षेपतः ’क्षेत्र’ कहा जाता है ।

टिप्पणी : साँख्य-दर्शन के अनुसार, पुरुष ही एकमात्र चेतन, अविकारी तत्व है, जबकि प्रकृति नित्य विकारशील, नाम-रूप के साथ परिवर्तन से युक्त जड तत्व है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 50,
--
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥
--
(सिद्धिम् प्राप्तः यथा ब्रह्म तथा आप्नोति निबोध मे ।
समासेन एव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥)
--
हे कौन्तेय, जो नैष्कर्म्यसिद्धि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उसके माध्यम से मनुष्य जिस रीति से ब्रह्म को प्राप्त होता है उसे मुझसे सुनो ।
--

’समासेन’ /  ’samāsena’ - in summary,

Chapter 13, śloka 3,

tatkṣetraṃ yacca yādṛkca yadvikāri yataśca yat |
sa ca yo yatprabhāvaśca tatsamāsena me śṛṇu ||
--
(tat kṣetram yat ca yādṛk ca yat vikārī yataḥ ca yat |
saḥ ca yaḥ yat-prabhāvaḥ ca tat samāsena me śruṇu ||)
--

Meaning : Now listen from Me in short about; What is the form and nature of that dwelling place where the 'Self' lives / abides in, what kind is that place in essence and how, why and to what extent it transforms / mutates, and what affects and causes this transformation.
--

Chapter 13, śloka 6,

icchādveṣaḥ sukhaṃ duḥkhaṃ
saṅghātaścetanā dhṛtiḥ |
etatkṣetraṃsamāsena
savikāramudāhṛtam |
--
(icchā dveṣaḥ sukham duḥkham
saṅghātaḥ cetanā dhṛtiḥ |
etat kṣetram samāsena 
savikāram-udāhṛtam ||)
--
Meaning :
Desire, repulsion, joy, sorrow, the gross body as the composite of 5 elements, consciousness, and just or unjust conviction, In brief, these all together are named 'kṣetra' / the field (where-in all activities take place).
--
Note :
According to sāṅkhya, the puruṣa is the only conscious (cetana), immutable underlying principle (Subjective Reality, Brahman) of the Whole Existence. In comparison prakṛti is the insentient objective Reality that keeps undergoing change all the time. So prakṛti is said to be vikārī, vikāraśīla, -subject to mutation, while  puruṣa is ever avikārī principle, - ever unaffected by change.
--
Chapter18, śloka  50,

siddhiṃ prāpto yathā brahma
tathāpnoti nibodha me |
samāsenaiva kaunteya
niṣṭhā jñānasya yā parā ||
--
(siddhim prāptaḥ yathā brahma
tathā āpnoti nibodha me |
samāsena eva kaunteya
niṣṭhā jñānasya yā parā ||)
--

Meaning :
O kaunteya, (arjuna)! Now listen from Me with due attention, - how one, who has attained conviction, abides in the 'Self' / 'Brahman'. How one realizes That, Which is the Wisdom transcendental.
--

No comments:

Post a Comment