Thursday, June 11, 2015

वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म,


सनातन-धर्म के दो रूप हैं
वर्ण-आधारित आश्रम-धर्म,
तथा वर्ण-निरपेक्ष ’शैव’,’शाक्त’ ’सौर’ ’वैष्णव’ और ’गाणपत्य’ तथा इनसे निकले ’पौराणिक-धर्म’ .
गीता में कहीं यह नहीं कहा गया है कि ’वर्ण-आश्रम-धर्म’ का यह वर्गीकरण ’जाति’-आधारित है । किन्तु ’जाति’ एक प्रारंभिक स्थान तो रखता ही है ।
फ़िर ’वर्ण’ का अर्थ है, मनुष्य जन्म से भले ही किसी भी जाति में पैदा हुआ हो, ’वर्ण’ उसकी ’प्रकृति’ से उसने स्वयं चुना होता है ।
आश्रम प्राणिमात्र को प्राप्त होनेवाली स्वाभाविक ’अवस्था’ है जिसके अनुकूल धर्मोंका पालन करना उसके लिए हितकारी और पालन न करना अहितकारी होता है ।
एक मोटे अनुमान से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य फ़िर 50 तक गार्हस्थ्य और फ़िर वानप्रस्थ ’आश्रम’ शरीर को प्रकृति से ही प्राप्त हुआ है ।
’स्त्री’ या ’पुरुष’ शरीर भी ’जीव’ को उसके ’संकल्प के ही अनुसार प्राप्त होता है इसलिए उसके अनुसार स्त्रियोचित या पुरुषोचित ’प्रवृत्तियाँ’ उसे ’प्राप्त’ होती हैं । यदि वह उनसे सुसंगति रखते हुए अपना आचरण करे तो उसे कम से कम कष्ट और अधिक से अधिक सुख प्राप्त होगा ।
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जिस व्यक्ति में ’ब्राह्मण’ ’क्षत्रिय’ ’वैश्य’ और ’शूद्र’ आदि के जैसे / जितने संस्कार (गुण तथा कर्म की प्रवृत्ति) होंगे वह ’उतना’ ही ’ब्राह्मण’ ...आदि होगा ।
इसलिए ’जाति’ से ब्राह्णण आदि होना तो एक ’संभावना’ भर होती है ।
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फ़िर गीता के अनुसार ही ’ईश्वर’ की प्राप्ति के लिए ’जाति’ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता । ’जाति’ सामाजिक संस्था के रूप में उपयोगी है किन्तु उसकी भी मर्यादाएँ तो हैं ही ।
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उचित सन्दर्भ के लिए गीता अध्याय 3, श्लोक 28, 29, 
तथा गीता अध्याय 4, श्लोक 13, अध्याय 9, श्लोक 30, देखिए । 
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इन्हें यहाँ नीचे दिए गए 'लेबल्स'/ 'Label' को click कर भी देख सकेंगे । 
  

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