Friday, April 8, 2022

सफलता के मंत्र-मूल

सफलता / असफलता

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श्रीमद्भगवद्गीता ग्रंथ का प्रारंभ अर्जुन की विषण्ण मनःस्थिति से होता है, और प्रथम अध्याय का आरंभ :

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।। 

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

इस श्लोक से। 

यह इसी का द्योतक है कि शरीर, मन, बुद्धि रूपी धर्मों के क्षेत्र में पृथक् पृथक् किन्तु व्यवहार रूपी कर्म / आचरण के क्षेत्र में एक दूसरे से भिन्न भिन्न, फिर भी एक साथ विद्यमान कुरुवंश के उन  वंशजों ने क्या किया। क्योंकि शरीर, मन, बुद्धि एवं चेतना सभी अपने अपने विशिष्ट धर्मों को त्याग नहीं सकते जबकि कर्म एक ऐसी वस्तु है जो घटना के रूप में काल-स्थान के अन्तर्गत घटित होनेवाला तथ्य है, किन्तु भिन्न भिन्न शरीरों में अवस्थित विभिन्न मनुष्य उसे भिन्न भिन्न प्रकार से परिभाषित और ग्रहण करते हैं।  इस प्रकार धर्म एक काल-स्थान निरपेक्ष सत्य है, जबकि कर्म एक निष्कर्ष है जो धारणा / धृति के रूप में मनुष्य के स्वभाव की आधारभूत वास्तविकता।

यह स्वभाव गुण-कर्म का संयोग है और यही चार मूल वर्णों का कारण है। उल्लेखनीय है कि ये चार वर्ण यद्यपि जन्म के अर्थ में जातिवाचक हैं किन्तु सामाजिक भेद की उस भावना के अर्थ में मनुष्यों का वर्गीकरण नहीं करते जैसा कि जाति शब्द से समझा जाता है। जाति पुनः मूल वर्ण का लक्षण हो सकता है, या फिर इन गुण-कर्मों के विभिन्न अनुपात में संयुक्त होने का परिणाम भी हो सकता है। इसलिए कोई भी मनुष्य जो किसी भी जाति में क्यों न पैदा हुआ हो, अपने स्वभाव / गुण-कर्म के अनुसार ही किसी कार्य को करने में प्रवृत्त होता है, प्रवृति ही से प्राप्त उसके संस्कारों से उसमें किसी कार्य को करने के लिए इच्छा-अनिच्छा, रुचि-अरुचि, संकल्प-विकल्प आदि उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से उसमें कर्म करने की भावना का उद्भव होता है और तब उसमें अज्ञान और प्रमादवश अपने आपके एक स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने की भावना के रूप में अहंवृत्ति का जन्म होता है। चेतना (consciousness) की अपनी भूमिका इस पूरे क्रम में केवल उस अविकारी (immutable) आधारभूत अधिष्ठान (underlying principle) की होती है जो प्रवृत्ति के कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं करती । किन्तु प्रवृत्ति से संलग्न अज्ञान और प्रमाद ही इस स्वतंत्र प्रतीत होनेवाले कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता एवं स्वामी में ही अपने आपके स्वयं के एक स्वतंत्र व्यक्ति होने का आभास पैदा करते हैं। यहीं से कर्म की अवधारणा पैदा होती है, जो बुद्धि को आवरित कर लेती है। 

ऐसे स्वतंत्र कर्ता और प्रतीत होने वाले कर्म की अवधारणा की सत्यता की परीक्षा करने पर स्पष्ट हो जाता है कि केवल चेतना ही अस्तित्वमान एकमात्र वास्तविकता है। 

यह हुई साङ्ख्य अर्थात् ज्ञाननिष्ठा जिसका वर्णन अध्याय २ के अन्तर्गत किया गया है।

जब मनुष्य इस प्रकार की परीक्षा करने में असमर्थ होता है, तो उसमें किंकर्तव्यविमूढता की भावना उत्पन्न होती है, और वह यह भी नहीं देख पाता, कि क्या वास्तव में वह कर्म करने या न करने के लिए स्वतंत्र है भी या नहीं?

किन्तु इस स्थिति में भी उसमें कर्म किए जाने की आवश्यकता का आग्रह तो होता ही है। इसे ही कर्मयोग अर्थात् ज्ञाननिष्ठा भी कहा जाता है। चूँकि दोनों ही प्रकार की निष्ठा से अंततः एक ही फल प्राप्त होता है, इसलिए अध्यात्म के तत्व के जिज्ञासु मनुष्य को चाहिए, कि पहले अपने में विद्यमान स्वाभाविक निष्ठा इनमें से कौन सी है इसे ठीक ठीक समझ ले। 

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