Saturday, April 9, 2022

कर्म-मार्ग और ज्ञान-मार्ग

अभ्यास-योग

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वैसे तो इन दो प्रकार की निष्ठाओं के अनुसार मनुष्य ज्ञान-मार्ग और कर्म-मार्ग में से किसी एक का ही अधिकारी हो सकता है, किन्तु कोई बिरला ही इस बारे में जागरूक होता है। यह जानने से पहले प्रायः सभी मनुष्य संसार में निरंतर सुख पाते रहना एवं कष्टों से बचते रहना ही चाहते हैं। जब तक मनुष्य यह नहीं देख पाता कि सुख और दुःख परिस्थितियों और समय के साथ साथ अपना रंग-रूप बदलते रहते हैं तब तक मनुष्य सदैव सुखी रहने और दुःख से बचे रहने की लालसा से ग्रस्त रहता है। किन्तु जब उसे दुःख से बचने का कोई रास्ता दिखाई देना बन्द हो जाता है, तब वह या तो किसी भगवान, ईश्वर, देवता आदि की शरण लेता है, या संसार तब उसे सतत बदलते दिखाई देनेवाले दुःख का ही दूसरा नाम प्रतीत होता है। इस स्थिति में भी भगवान, ईश्वर या देवता कौन / क्या है, यद्यपि इसकी भी उसे कल्पना, ज्ञान और इसका कोई महत्व तक नहीं होता, फिर भी वह केवल आशा-अपेक्षा और संभावना की दृष्टि से वह ऐसे किसी इष्ट में विश्वास करना चाहता है, -न कि उसे ऐसा कोई विश्वास वस्तुतः होता है, किन्तु  फिर भी ऐसे विश्वास से उसे मनोवैज्ञानिक रूप से कुछ सान्त्वना मिलती हुई भी प्रतीत हो सकती है। या फिर आसपास के दूसरों लोगों के संपर्क से भी वह ऐसी किसी आस्था को जाने या अनजाने ग्रहण कर लेता है, जो कि उसकी एक धारणा ही होती है, न कि यथार्थ वस्तुस्थिति। 

फिर भी दोनों ही स्थितियों में उसे संसार से भय लगने लगता है, या वैराग्य ही हो जाता है। यह वैराग्य उस विराग से बहुत अलग प्रकार का होता है, जिसमें मन एक विषय से ऊब जाने से किसी दूसरे विषय की ओर आकर्षित होने लगता है।

तब मनुष्य यद्यपि नित्य सुख और अनित्य सुख के भेद को तो समझ लेता है, किन्तु फिर भी उसे यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि नित्य और अनित्य जिसे कहा जाता है, वह (तत्व) वस्तुतः क्या है?

इस प्रकार परिपक्व मन, बुद्धि वाला, धैर्यशील तथा वैराग्य-युक्त कोई बिरला ही उस नित्य तत्व की खोज में प्रवृत्त होता है और उसे ठीक ठीक जानकर आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर, चेतन, चैतन्य-मात्र,  चेतना, भान, बोध या निजता आदि का नाम देता है। या यह भी संभव है कि तब वह उसे कोई नाम ही न दे, और मौन रहते हुए वाणी का प्रयोग केवल व्यावहारिक रूप से बहुत आवश्यक होने पर ही करे।

किसी भी स्थिति में मनुष्य को प्रारंभ में कोई न कोई अभ्यास तो करना ही होता है :

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।। 

ध्यानात्कर्मफलस्त्यागस्त्याच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।

(अध्याय१२)

यहाँ 'ज्ञान' का तात्पर्य केवल सापेक्ष, बौद्धिक, या साङ्ख्य-ज्ञान (निरपेक्ष) के अर्थ में भी ग्रहण किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि ध्यान के अभ्यास में ध्याता, ध्येय और ध्यान की गतिविधि रूपी त्रिपुटी होती है, किन्तु निरपेक्ष अर्थात् साङ्ख्य ज्ञान में इस त्रिपुटी का विलय हो जाता है। 

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