Tuesday, May 18, 2021

2. अभ्यास-योग

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
हे युधिष्ठिर! 
वैसे तो प्राणिमात्र पर ही मेरी सदा अत्यन्त कृपा रहती है, किन्तु मेरी ही त्रिगुणात्मिका माया का आवरण बुद्धि पर होने से किसी को भी मेरी इस कृपा का आभास तक नहीं होता। किन्तु इसमें
किसी का कोई दोष भी नहीं, क्योंकि जैसे बुद्धि माया से प्रेरित होती है, उसी तरह यह त्रिगुणात्मिका माया स्वयं भी मुझ पर ही आश्रित, मुझसे ही प्रेरित होकर अपने असंख्य कार्य करती रहती है। यह सारा प्रपञ्च मेरी ही लीला है और इसलिए न तो कोई पतित है, न पापी और न पुण्यवान। सभी मेरे ही व्यक्त प्रकार हैं। विभिन्न नाम-रूपों से वे अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु वस्तुतः न कोई कर्ता, न भोक्ता, न स्वामी और न ज्ञाता होता है। व्यक्त देह से संबद्ध बुद्धि में ही कर्म की कल्पना प्रस्फुटित होती है और देह, तथा देह का जिस जगत में आभास होता है, वह जगत तथा वह चेतना जिसमें देह और जगत की प्रतीति उत्पन्न होती है, मेरा ही प्रकाश और प्रकाश का विस्तार है। 
इसी पृष्ठभूमि में मैंने अर्जुन के लिए अभ्यास-योग का उपदेश इस प्रकार से किया था। :
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानात्-ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। १२ 
(अध्याय १२)
किन्तु इस श्लोक का सन्दर्भ जिन दूसरे श्लोकों से है, वे क्रमशः  (अध्याय ११ में) इस प्रकार से हैं :
अर्जुन उवाच :
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। 
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ।। ४६
श्री भगवानुवाच :
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मेत्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।। ४७
इस प्रकार स्पष्ट है कि अर्जुन की ऐसी विशिष्ट इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसे मैंने अपना विश्वरूपदर्शन दिखलाया था। उसे इसलिए जिस प्रकार से मेरे इस रूप का दर्शन हुआ था, वैसा दर्शन कर पाना उसके सिवा अन्य किसी दूसरे के लिए संभव नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि इस प्रकार के विश्वरूपदर्शन में अर्जुन ने यद्यपि समस्त चर-अचर, जड-चेतन, भूत-समष्टि को एकमेव नित्य विद्यमान चेतनामात्र की तरह अनुभव कर लिया था, न कि अक्षरशः अपने चर्म-चक्षुओं से देखा था, किन्तु यह अनुभव भी अस्थायी और इसलिए अनित्य होने से यह परमात्मा का वास्तविक दर्शन था ऐसा कहना उचित न होगा। 
अर्जुन से मैंने आगे कहा :
न वेदाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः। 
एवं रूप शक्य अहं नृलोके द्रष्टुत्वदन्येन कुरुप्रवीर।। ४८
इस प्रकार मैंने पुनः इसकी पुष्टि की, कि मेरे जिस स्वरूप का दर्शन उसे हुआ, उसे उसके अतिरिक्त न तो कोई अन्य पुरुष देख सकता है, और न ही वेदों आदि के अध्ययन से, दान, पूजा आदि विविध पुण्यकर्मों से, उग्र तप इत्यादि क्रियाओं से, भी इस प्रकार के दर्शन कर पाना लोक में किसी के लिए संभव है।
***
क्रमशः
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