प्रासंगिक
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गीता के दो श्लोक प्रासंगिक हैं :
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४०
(अध्याय २)
तथा --
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। १०
(अध्याय ९)
इनसे ही संबद्ध, इसी अध्याय ९ के अगले दो श्लोक इस प्रकार से हैं --
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। ११
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।। १२
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इनके अर्थ इस ब्लॉग में अन्यत्र उपलब्ध हैं।
यहाँ इन्हें उद्धृत करने का प्रयोजन यही है कि यदि हमारी रुचि, उत्सुकता तथा जिज्ञासा हो तो ये सारे श्लोक हमारे समस्त संसार और पूरी पृथ्वी की समस्याओं और कष्टों और संभावित समाधानों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर सकते हैं ।
न तो इस ब्लॉग का लेखक बहुत विद्वान, ज्ञानी या सक्षम है, न वे सारे विचारक, चिंतक, बुद्धिजीवी, दार्शनिक, महात्मा, महापुरुष, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, राजनेता, संत या धर्मोपदेशक आदि, जो इस दुनिया के बारे में बहुत चिन्तित, उद्विग्न हैं और इसे सुधारना या बदलना चाहते हैं, या इस बारे में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं।
मूल प्रश्न यह है कि क्या वे संसार, दुनिया, आत्मा, या परमात्मा, और अपने आप (के वास्तविक स्वरूप) को ठीक ठीक जानते भी हैं या नहीं!
यह हो सकता है कि मनुष्य और दूसरे सभी प्राणियों के प्रति उनके हृदय में अत्यन्त करुणा हो, किन्तु जब तक वे संसार, आत्मा, सत्य, परमात्मा और प्रमुखतः तो स्वयं अपने-आपकी वास्तविकता से अनभिज्ञ (अज्ञ) हैं, इस बारे में जानने और खोजबीन करने के महत्व के प्रति उनमें श्रद्धा तक न हो, इतना ही नहीं, इस विषय में संशयग्रस्त भी हों कि क्या ऐसा कोई सत्य, कोई आत्मा, ब्रह्म या ईश्वर है या नहीं, जो समस्त वैश्विकरण और जागतिक उपक्रम का संचालनकर्ता है, तब तक वे अपनी उसी बुध्दि से प्रेरित हुए अपने अपने उद्देश्यों की सिद्धि में संलग्न रहते हैं जो उन्हें प्रकृति से मिली होती है।
इस प्रकार वे उन परिस्थितियों के दास (यंत्र) होते हैं, जो उन्हें विशिष्ट शुभ-अशुभ कर्मों में संलग्न करती है।
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(अध्याय १०)
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