Wednesday, May 12, 2021

उत्तरगीता

1.

महाभारत के युद्ध की समाप्ति के कुछ समय के बाद सर्वत्र शान्ति स्थापित हो चुकी थी । महाराज युधिष्ठिर धर्म के अनुसार पृथ्वी पर शासन कर रहे थे। तब एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण से उन्होंने निवेदन करते हुए उनसे यह जिज्ञासा की --

"भगवन्! युद्ध की भीषण स्थिति में आपने अपने सखा, और मेरे अनुज को जो उपदेश प्रदान किया, उसका यत्किञ्चित अंश मुझे भी प्रदान हो, ऐसी मेरी अभिलाषा है। यदि भगवन् मुझे इस हेतु पात्र समझें तो इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझूँगा।"

तब भगवान् श्रीकृष्ण ने मंदस्मित के साथ उनसे कहा --

"युधिष्ठिर! यह सत्य है कि उस समय मैंने अर्जुन से जो संवाद किया, वह तात्कालिकता और प्रासंगिकता की दृष्टि से यद्यपि संक्षिप्त ही था, और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि में जाने का न तो अवसर था, न प्रश्न, परंतु अर्जुन की पात्रता उसकी वह  विषाद-पूर्ण मानसिक स्थिति ही थी, जिसके कारण वह मेरे वचनों को ध्यान और एकाग्रता से सुन, उनका तात्पर्य यथावत् ग्रहण कर पाया। युधिष्ठिर! लोक में अर्जुन जैसा, पात्र दुर्लभ ही होता है। 

तुम्हारी स्वयं की स्थिति में भी, यद्यपि तुम भी अवश्य ही अर्जुन के ही समान इस ज्ञान की प्राप्ति करने के अधिकारी हो, किन्तु अर्जुन के लिए उस समय की उसकी वह मनोदशा ही इस शिक्षा के लिए एक उपयुक्त महत्वपूर्ण कारण सिद्ध हुई। उसकी उस विषाद-पूर्ण मनःस्थिति के तथा मुझमें अपनी अगाध श्रद्धा के कारण ही वह पात्रता में तुमसे श्रेष्ठ न होते हुए भी तुमसे न्यून भी नहीं था। वैसे तो तुम्हें धर्म क्या है और अधर्म क्या है, इसका पूर्ण ज्ञान है, और तुम तदनुसार धर्म-अधर्म के विवेक से प्रेरित होकर धर्म का आचरण भी करते हो, किन्तु लौकिक धर्म अध्यात्म के धर्म से बहुत भिन्न है, इसलिए मैं तुम्हारी जिज्ञासा शान्त करने के लिए तुमसे गीता के उसी मर्म को प्रत्यक्ष कहूँगा जिसे युद्ध के समय  मैंने अर्जुन से परोक्षतः कहा था।

चूँकि यह मर्म, जो मैं तुमसे कहने जा रहा हूँ, उसे सुयोग्य भक्त,  मुमुक्षु या अधिकारी पुरुष उचित समय आने पर अपने हृदय में ही सुनता और जान लेता है :

(कालेनात्मनि विन्दति...३८, अध्याय४)  

इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह पहले चित्त को ध्यानपूर्वक शुद्ध कर संकल्प सहित भक्ति, ज्ञान  कर्मयोग (निष्काम कर्म) का आश्रय लेते हुए इसका श्रवण करे।

 इस प्रकार ध्यान से श्रवण करने के अनन्तर मनन एवं निदिध्यासन करते हुए वह अन्ततः मुझे ही प्राप्त होता है।

ऐसा ही मेरा कोई प्रिय भक्त.... "

*** 

  

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