अध्याय १
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ दुर्योधन और उसके भाइयों आदि कौरवों के पिता धृतराष्ट्र के इस प्रश्न से होता है, जिसे वे सञ्जय से पूछते हैं --
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवाः।।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।
सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य बदल जाने से कैसे एक ही विचार या मत का तात्पर्य बदल जाता है और कैसे तब विवाद की स्थिति जन्म लेती है, यह इसका एक उदाहरण है।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जो तात्पर्य प्रतीत होता है, उसे ग्रहण कर पाना बहुत सरल है। राजा दुर्योधन के पिता धृतराष्ट्र सञ्जय से प्रश्न करते हैं कि धर्म के विषय में और कर्म के विषय में, उस उस क्षेत्र में मेरे और मेरे भाई पाण्डु के पुत्रों ने एकत्र होकर क्या किया?
इस श्लोक का यह सरल ऐतिहासिक तात्पर्य हुआ।
इसे ही दूसरे तरीके से समझें तो इसे राजनीतिक प्रश्न के रूप में भी देखा जा सकता है। राज् - राजति, राजते, राज्यते, राजा, राज्य और राष्ट्र सभी इसी एक ही धातु "राज्" से बने भिन्न भिन्न शब्द हैं, जिनका तात्पर्य भिन्न भिन्न हो सकता है किन्तु सभी परस्पर संबद्ध हैं।
राष्ट्र का अर्थ है संपूर्ण पृथ्वी, जिसमें अनेक राजा राज्य करते हैं और सभी स्वतंत्र होते हैं। जब उनमें से कोई एक सम्पूर्ण पृथ्वी अर्थात् समूचा राष्ट्र को अपने ही अधिकार में रखना चाहता है और अपने विरोधी राजा को सुई की नोंक के बराबर भूमि भी नहीं देना चाहता है तो अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए दूसरे राजा के लिए युद्ध करने का ही एकमात्र विकल्प होता है।
धृतराष्ट्र का परोक्ष रूप से तात्पर्य हुआ अंधी दिशाहीन स्वार्थपरक राजनीति, और उस राजनीति का एकमात्र आधार और आश्रय है - मामकाः या "मेरा, मेरी और मेरे"। और उस राजनीति की सबसे बड़ी सन्तान है अपने तय लक्ष्य को पाने के लिए घोर और दुर्धर्ष युद्ध करने की प्रबल अभिलाषा, जो कि दुर्योधन है। युद्ध धर्म नहीं, कर्म है, क्योंकि वह किसी भी प्रकार से किसी न किसी कर्म को करने की प्रेरणा प्रदान देता है। इस प्रकार युद्धक्षेत्र, धर्मक्षेत्र ही न रहकर कुरुक्षेत्र का रूप ग्रहण कर लेता है।
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