Friday, April 11, 2014

आज का श्लोक, ’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH',

आज का श्लोक, ’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH',
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’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH' -सात्त्विक प्रवृत्तिवाले मनुष्य

अध्याय 7, श्लोक 12,
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
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(ये च एव सात्त्विकाः भावाः राजसाः तामसाः च ये ।
मत्तः एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि ॥
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भावार्थ :
परमात्मा विशुद्ध चैतन्य मात्र है, उसमें ’अस्मि’ की भावना तक नहीं है । इस दृष्टि से जीव भी वही है । किन्तु किसी देह-विशेष में व्यक्त हुआ वही चैतन्य, देह के नाम-रूप से अपने पृथक् होने का विचार कर लेता है । और तब भी उसे यह स्पष्ट नहीं होता कि इस ’पृथक्’ सत्ता के रूप में वह क्या है ।’जानना’ और ’होना’ ’चित्’ और ’सत्’ तब भी उसके लिए स्वतःप्रमाणित सत्य होते हैं, जबकि यह ’पृथक्-ता’ का विचार मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ अन्य विचारों की तरह का ही एक विचार ही होता है । किन्तु इस अर्थ में यह शेष सभी विचारों से भिन्न होता है कि यह दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में सतत् बना रहता है । यद्यपि निद्रावस्था में यह ’पृथक्-ता’ का विचार दूसरे सभी की तरह ही विलीन हो जाता है और ’चित्’ और ’सत्’ यथावत् तब भी अविच्छिन्न रहते हैं । क्योंकि निद्रा टूटने पर दूसरे विचार, और उनकी पृष्ठभूमि में विद्यमान ’पृथक्-ता’ पुनः आ धमकते हैं, जबकि उनके अभाव में निद्रा की गहरी अवस्था में भी मनुष्य मात्र को किसी अद्भुत् आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है । संक्षेप में कहें तो गहरी निद्रा में ’चित्’, ’सत्’ और ’आनन्द’ भी प्रत्यक्ष ही जाने जाते हैं । हाँ यह अवश्य है कि ’विचार’ की भाषा में उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । किन्तु इस तथ्य पर ध्यान देने से कि ’चित्’ ’सत्’ और ’आनन्द’ ही वस्तुतः पृथक्-ता की भावना की भी आधारभूत पृष्ठभूमि है, और हमारा चित्त कभी कभी अनायास ही इस आधारभूत पृष्ठभूमि को जागृत अवस्था में भी छू लेता है, हम उसे उस परमात्मा की तरह देख सकते हैं जिसका वर्णन उपरोक्त श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने ’अहम्’ नाम देकर किया है ।
वे संस्कृत व्याकरण के ’उत्तम पुरुष’ एकवचन ’अहम्’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसमें सात्त्विक राजस और तामस सारे भाव उठते-गिरते रहते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं :
ये जो भी सात्त्विक, और ये जो राजस और तामस भाव हैं, वे उनका उद्भव मुझसे ही होता है, उन्हें इस तरह से जानो । और मैं उनमें नहीं हूँ बल्कि वे ही मुझमें हैं । प्रथम दृष्टि में इस वक्तव्य में विरोधाभास दिखलाई देगा किन्तु जब हम ’परमात्मा’ का अर्थ ’चित्’ ’सत्’ और आनन्द रूपी अविकारी सत्ता समझें और उसे ’अहम्’ कहें तो हम ’उत्तम पुरुष’ / ’पुरुषोत्तम’ का मर्म अवश्य देख लेंगे । वास्तव में अहम् एवम् अहंकार दोनों भिन्न तत्त्वों के नाम हैं । अहंकार सदैव सीमित और खण्डित होता है, ’अहम्’ सदा असीमित, अखण्ड, और ....।
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अध्याय 17, श्लोक 4,

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥
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(यजन्ते सात्त्विकाः देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणान् च अन्ये यजन्ते तामसाः जनाः ॥)
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भावार्थ :
सात्त्विक मन-बुद्धि वाले मनुष्य तो देवताओं की उपासना करते हैं, राजस प्रवृत्तिवाले यक्ष और राक्षसों की, तथा तामस प्रवृत्ति से युक्त मनुष्य प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ।
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’सात्त्विकाः’ / 'sAttvikAH' -

Chapter 7, shloka 12,

ye chaiva sAttvikA bhAvA
rAjasAstAmasAshcha ye |
matta eveti tAnviddhi
na tvahaM teShu te mayi ||
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Meaning :
These tendencies of sAttvika (of harmony, peace and light ), of rAjasa (passion, restlessness, confusion), and also tAmasa (indolence, inertia, ignorance and darkness) of mind though all they have their emergence from ME; know well, They  are in ME, and not I, in them.
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There is a ground wherefrom and wherein these tendencies emerge, express them-self and dissolve again and again. That ground is 'consciousness' which is devoid of even the 'I'-sense of being 'some-one'. This 'I'-sense, -of being 'some-one' is a thought and inference on the part of intellect (the faculty of brain). This 'I'-sense, intellect and tendencies keep rising and setting, but the ground neither rises nor sets. This ground is The timeless consciousness, undivided, unlimited, while the 'person', a bundle of memories associated with and caught together in 'I'-sense is always a person, limited in a specific body, time and space. Knowing thus ...
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Chapter 17, shloka 4,
yajante sAttvikA devAn-
yakSharakShAMsi rAjasAH |
pretAnbhUtagaNAnchAnye
yajante tAmasA janAH ||
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Those who have the sAttvika tendencies worship divine beings, those with rAjasika worship yakSha (those who have occult powers) and rAkShasA (those who have purely material powers only) and those with tAmasika, worship spirits and ghosts.
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