आज का श्लोक, ’सात्त्विकम्’ / ’sāttvikam’,
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’सात्त्विकम्’ / ’sāttvikam’, - सात्त्विक स्वरूपयुक्त,
अध्याय 14, श्लोक 16,
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥
--
(कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकम् निर्मलम् फलम् ।
रजसस्तु फलम् दुःखमज्ञाम् तमसः फलं ॥)
--
भावार्थ :
श्रेष्ठ कर्म का फल तो सात्त्विक और निर्मल कहा जाता है, जबकि राजस कर्म का फल दुःख एवम् तामस कर्म का फल अज्ञान कहा जाता है ॥
--
अध्याय 17, श्लोक 17,
श्रद्धया परया तप्तं तपस्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥
--
(श्रद्धया परया तप्तम् तपस्त्रिविधम् नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिः युक्तैः सात्त्विकम् परिचक्षते ॥)
--
भावार्थ :
श्लोक 16 में वर्णित तीन प्रकार के तप को, जिन्हें मनुष्यों द्वारा तप को फल की आकाङ्क्षा न करते हुए, पूर्ण श्रद्धा सहित किया जाता है, सात्त्विक तप कहा जाता है ।
--
अध्याय 17, श्लोक 20,
दातव्यमितियद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥
--
(दातव्यम् इति यत् दानम् दीयते अनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तत् दानम् सात्त्विकम् स्मृतम् ॥)
--
भावार्थ :
दान देना ही कर्तव्य है ऐसा समझते हुए, जो दान उपयुक्त देश काल एवम् पात्र को देखते हुए तदनुसार प्रत्युपकार की आशा न रखते हुए दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 20,
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
--
(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
--
भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य सब भूतों में अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 23,
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥)
--
(नियतम् सङ्गरहितम् अरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत् तत् सात्त्विकम् उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
शास्त्रविधि से अपने लिए निर्दिष्ट / निर्धारित किया गया, कर्तापन के अभिमान से रहित, राग अथवा द्वेष के बिना, फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए, जो कर्म किया जाता है, उस कर्म को सात्त्विक कहा जाता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 37,
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।
--
यत् तत् अग्रे विषम् इव परिणामे अमृतोपमम् ।
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
--
(पिछले श्लोक में वर्णित,) जो यह सुख है,जो अभ्यासकाल में यद्यपि विषवत् (अरुचिप्रद) प्रतीत होता हो, किन्तु परिणाम में वस्तुतः अमृततुल्य होता है, उस परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद
से उत्पन्न होनेवाले सुख को सात्त्विक कहा गया है ।
--
--
’सात्त्विकम्’ / ’sāttvikam’, - having harmony, peace, light and intelligence as the prominent aspects.
--
Chapter 14, shloka 16,
karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ
sāttvikaṃ nirmalaṃ phalam |
rajasastu phalaṃ duḥkham-
ajñānaṃ tamasaḥ phalam ||
Meaning :
As is said by the wise : The action performed with a sāttvika attitude of mind results in peace, purity and clarity, The action performed with a rajasa attitude results in misery, while the action performed with a tamasa attitude results in ignorance.
--
Chapter 17, shloka 17,
śraddhayā parayā taptaṃ
tapastrividhaṃ naraiḥ |
aphalākāṅkṣibhiryuktaiḥ
sāttvikaṃ paricakṣate ||
Meaning :
The three kinds of austerities (as described in the earlier shloka 16 of this chapter,) practiced by men without expectation of a favour in return, and with full trust are called the austerities of the sāttvika kind.
--
Chapter 17, shloka 20,
dātavyamitiyaddānaṃ
dīyate:'nupakāriṇe |
deśe kāle ca pātre ca
taddānaṃ sāttvikaṃ smṛtam ||
Meaning :
Help of the appropriate kind at appopriate time and place, and offered to the right one who needs it, without anticipating or motive of a reward for the same is termed sāttvika dānaṃ.
Chapter 18, shloka 20,
sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||
Meaning :
The knowledge (wisdom) that helps one realize that the same imperishable principle is ever present and manifest in all forms as undivided divine whole, know this as of the sāttvika kind.
Chapter 18, shloka 23,
niyataṃ saṅgarahitam-
arāgadveṣataḥ kṛtam |
aphalaprepsunā karma
yattatsāttvikamucyate ||
Meaning :
An action that is done because has been ordained (by the scriptures or providence), without indulging in attachment to it , without attraction or repulsion, and that which is free from the motive, any is called of the sāttvika kind.
Chapter 18, shloka 37,
yattadagre viṣamiva
pariṇāme:'mṛtopamam |
tatsukhaṃ sāttvikaṃ proktam-
ātmabuddhiprasādajam ||
Meaning :
A happiness that may though appear like poison in the beginning and results as sweet as nectar in the end, and is the joy that which has the wisdom of Self-reazation as its source, is of the sāttvika kind.
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’सात्त्विकम्’ / ’sāttvikam’, - सात्त्विक स्वरूपयुक्त,
अध्याय 14, श्लोक 16,
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥
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(कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकम् निर्मलम् फलम् ।
रजसस्तु फलम् दुःखमज्ञाम् तमसः फलं ॥)
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भावार्थ :
श्रेष्ठ कर्म का फल तो सात्त्विक और निर्मल कहा जाता है, जबकि राजस कर्म का फल दुःख एवम् तामस कर्म का फल अज्ञान कहा जाता है ॥
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अध्याय 17, श्लोक 17,
श्रद्धया परया तप्तं तपस्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥
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(श्रद्धया परया तप्तम् तपस्त्रिविधम् नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिः युक्तैः सात्त्विकम् परिचक्षते ॥)
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भावार्थ :
श्लोक 16 में वर्णित तीन प्रकार के तप को, जिन्हें मनुष्यों द्वारा तप को फल की आकाङ्क्षा न करते हुए, पूर्ण श्रद्धा सहित किया जाता है, सात्त्विक तप कहा जाता है ।
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अध्याय 17, श्लोक 20,
दातव्यमितियद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥
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(दातव्यम् इति यत् दानम् दीयते अनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तत् दानम् सात्त्विकम् स्मृतम् ॥)
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भावार्थ :
दान देना ही कर्तव्य है ऐसा समझते हुए, जो दान उपयुक्त देश काल एवम् पात्र को देखते हुए तदनुसार प्रत्युपकार की आशा न रखते हुए दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ।
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अध्याय 18, श्लोक 20,
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
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(सर्वभूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते ।
अविभक्तम् विभक्तेषु तत्-ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् ॥)
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भावार्थ :
जिस ज्ञान (के माध्यम) से मनुष्य सब भूतों में अविभक्त अर्थात् समान रूप से विद्यमान एक ही अविनाशी परमात्मभाव को देखता है उस ज्ञान को (तुम) सात्त्विक (ज्ञान) जानो ।
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अध्याय 18, श्लोक 23,
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥)
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(नियतम् सङ्गरहितम् अरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत् तत् सात्त्विकम् उच्यते ॥)
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भावार्थ :
शास्त्रविधि से अपने लिए निर्दिष्ट / निर्धारित किया गया, कर्तापन के अभिमान से रहित, राग अथवा द्वेष के बिना, फल की आकाङ्क्षा न रखते हुए, जो कर्म किया जाता है, उस कर्म को सात्त्विक कहा जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 37,
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।
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यत् तत् अग्रे विषम् इव परिणामे अमृतोपमम् ।
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
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(पिछले श्लोक में वर्णित,) जो यह सुख है,जो अभ्यासकाल में यद्यपि विषवत् (अरुचिप्रद) प्रतीत होता हो, किन्तु परिणाम में वस्तुतः अमृततुल्य होता है, उस परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद
से उत्पन्न होनेवाले सुख को सात्त्विक कहा गया है ।
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’सात्त्विकम्’ / ’sāttvikam’, - having harmony, peace, light and intelligence as the prominent aspects.
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Chapter 14, shloka 16,
karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ
sāttvikaṃ nirmalaṃ phalam |
rajasastu phalaṃ duḥkham-
ajñānaṃ tamasaḥ phalam ||
Meaning :
As is said by the wise : The action performed with a sāttvika attitude of mind results in peace, purity and clarity, The action performed with a rajasa attitude results in misery, while the action performed with a tamasa attitude results in ignorance.
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Chapter 17, shloka 17,
śraddhayā parayā taptaṃ
tapastrividhaṃ naraiḥ |
aphalākāṅkṣibhiryuktaiḥ
sāttvikaṃ paricakṣate ||
Meaning :
The three kinds of austerities (as described in the earlier shloka 16 of this chapter,) practiced by men without expectation of a favour in return, and with full trust are called the austerities of the sāttvika kind.
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Chapter 17, shloka 20,
dātavyamitiyaddānaṃ
dīyate:'nupakāriṇe |
deśe kāle ca pātre ca
taddānaṃ sāttvikaṃ smṛtam ||
Meaning :
Help of the appropriate kind at appopriate time and place, and offered to the right one who needs it, without anticipating or motive of a reward for the same is termed sāttvika dānaṃ.
Chapter 18, shloka 20,
sarvabhūteṣu yenaikaṃ
bhāvamavyayamīkṣate |
avibhaktaṃ vibhakteṣu
tajjñānaṃ viddhi sāttvikam ||
Meaning :
The knowledge (wisdom) that helps one realize that the same imperishable principle is ever present and manifest in all forms as undivided divine whole, know this as of the sāttvika kind.
Chapter 18, shloka 23,
niyataṃ saṅgarahitam-
arāgadveṣataḥ kṛtam |
aphalaprepsunā karma
yattatsāttvikamucyate ||
Meaning :
An action that is done because has been ordained (by the scriptures or providence), without indulging in attachment to it , without attraction or repulsion, and that which is free from the motive, any is called of the sāttvika kind.
Chapter 18, shloka 37,
yattadagre viṣamiva
pariṇāme:'mṛtopamam |
tatsukhaṃ sāttvikaṃ proktam-
ātmabuddhiprasādajam ||
Meaning :
A happiness that may though appear like poison in the beginning and results as sweet as nectar in the end, and is the joy that which has the wisdom of Self-reazation as its source, is of the sāttvika kind.
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