आज का श्लोक, ’सुखम्’ / 'sukhaM' -1
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - सुख, आनन्द,
अध्याय 2, श्लोक 66,
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।
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( न अस्ति बुद्धिः अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना ।
न च अभावयतः शान्तिः अशान्तस्य कुतः सुखम् ॥)
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भावार्थ :
योगरहित मनुष्य में (निश्चयात्मक) बुद्धि नहीं होती, उसकी बुद्धि चञ्चल और अस्थिर, होती है । योगरहित मनुष्य के अन्तःकरण में भावना अर्थात् किसी से भी स्नेह भी नहीं होता । भावना से रहित होने से उसके हृदय में शान्ति (आत्म-सन्तुष्टिरूपी भावना) भी नहीं होती, और अशान्त को भला सुख कैसे अनुभव हो सकता है?
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अध्याय 4, श्लोक 40,
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
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(अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशयात्मा विनश्यति ।
न-अयम् लोको अस्ति न परः न सुखम् संशयात्मनः ॥)
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(विवेकजन्य) ज्ञान तथा श्रद्धा से रहित, संशययुक्त चित्त वाला मनुष्य विनष्ट हो जाता है, क्योंकि न तो यह लोक और न परलोक, और इसलिए न सुख ही, उसका होता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 3,
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्ट् न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
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(ज्ञेयः सः नित्यसन्न्यासी यः न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वः हि महाबाहो सुखम् बन्धात् प्रमुच्यते ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)! द्वन्दरहित हुआ जो (कर्मयोगी) न किसी से द्वेष करता है और न कोई आकांक्षा रखता है, सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । ऐसे मनुष्य को नित्यसंन्यासी ही समझा जाना चाहिए ।
अध्याय 5, श्लोक 13,
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
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(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
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भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - सुख, आनन्द,
अध्याय 2, श्लोक 66,
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।
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( न अस्ति बुद्धिः अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना ।
न च अभावयतः शान्तिः अशान्तस्य कुतः सुखम् ॥)
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भावार्थ :
योगरहित मनुष्य में (निश्चयात्मक) बुद्धि नहीं होती, उसकी बुद्धि चञ्चल और अस्थिर, होती है । योगरहित मनुष्य के अन्तःकरण में भावना अर्थात् किसी से भी स्नेह भी नहीं होता । भावना से रहित होने से उसके हृदय में शान्ति (आत्म-सन्तुष्टिरूपी भावना) भी नहीं होती, और अशान्त को भला सुख कैसे अनुभव हो सकता है?
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अध्याय 4, श्लोक 40,
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
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(अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशयात्मा विनश्यति ।
न-अयम् लोको अस्ति न परः न सुखम् संशयात्मनः ॥)
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(विवेकजन्य) ज्ञान तथा श्रद्धा से रहित, संशययुक्त चित्त वाला मनुष्य विनष्ट हो जाता है, क्योंकि न तो यह लोक और न परलोक, और इसलिए न सुख ही, उसका होता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 3,
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्ट् न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
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(ज्ञेयः सः नित्यसन्न्यासी यः न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वः हि महाबाहो सुखम् बन्धात् प्रमुच्यते ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)! द्वन्दरहित हुआ जो (कर्मयोगी) न किसी से द्वेष करता है और न कोई आकांक्षा रखता है, सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । ऐसे मनुष्य को नित्यसंन्यासी ही समझा जाना चाहिए ।
अध्याय 5, श्लोक 13,
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
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(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
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भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - bliss, happiness, (real or apparently so),
Chapter 2, shloka 66,
nAsti buddhirayuktasya
na chAyuktasya bhAvanA |
na chAbhAvayataH shAnti-
rashAntasya kutaH sukhaM ||
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Meaning :
One who has no right understanding (yoga, contact / association with the goal) has no inspiration. One who has no inspiration has no peace, and how one with no peace may find happiness?
Chapter 4, shloka 40,
ajnashchAshraddadhAnashcha
saMshayAtmA vinashyati |
nAyaM loko'sti na parao
na sukhaM saMshayAtmanaH ||
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Meaning :
One who has no wisdom, is ignorant of the Truth, one who lacks trust, and even more, is doubtful about the way of wisdom is just destroyed. For such a man, there is neither this world, nor the world here-after. There is no hope nor happiness for him.
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Chapter 5, shloka 3,
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jneyaH sa nitya sannyAsI
yo na dveShTi na kAnkShati |
nirdvandvo hi mahAbAho
sukhaM bandhAtpramuchyate ||
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Meaning :
He is indeed a true ascetic, who neither hates nor desires. free of the such opposites, O mahAbAho (arjuna)! he is esily freed from bondage.
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Chapter 5, shloka 13,
sarvakarmANi manasA
sannyastAste sukhaM vashI |
navadvAre pure dehI
naiva kurvanna kArayan ||
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Meaning :
The consciouseness (self) that lives in the body as its abode, with nine doors (2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, a mouth and 2 organs of excretion), when by way of discrimination and self-enquiry, gets rid of the false notion 'I do / I don't do', and thus neither doing, nor getting done anything by some other agent of action, is freed from all actions, rests peacefully and happily there-after for ever.
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