Wednesday, April 30, 2014

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (5)

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (5)
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 ’सः’ / 'saḥ' - वह,

अध्याय 5, श्लोक 3,

ज्ञेयः नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
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(ज्ञेयः सः नित्यसन्न्यासी यः न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वः हि महाबाहो सुखम् बन्धात् प्रमुच्यते ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)!  द्वन्दरहित हुआ जो (कर्मयोगी) न किसी से द्वेष करता है और न कोई आकांक्षा रखता है, सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । ऐसे मनुष्य को नित्यसंन्यासी ही समझा जाना चाहिए ।
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अध्याय 5, श्लोक 5,

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति  पश्यति ॥
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(यत्-साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानम् तत् योगैः अपि गम्यते ।
एकम् साङ्ख्यम् च योगम् च यः पश्यति सः पश्यति ॥)
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भावार्थ :
जिस तत्व की उपलब्धि विवेचनाओं के माध्यम से की जाती है, योगविधियों से भी उसकी प्राप्ति होती है । जो उस तत्व को देखता है, उसे यह भी दिखलाई देता है कि स्वरूपतः, सांख्य (विवेचना) और योग (भक्ति, ज्ञान, कर्म,) एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं ।
(टिप्पणी :
1 इसी अध्याय 5 के गत श्लोक (सं. 4) में इसी तथ्य की पुष्टि प्राप्त होती है ।
2 ’आत्मनो जडवर्गात् पृथग्ग्रहणम्’ के प्रकाश में प्रकृति-पुरुष-विवेक से आत्म-अनात्म को समझने का प्रयास, जिसे आत्मानुसंधान भी कहा जाता है और जो समस्त वेदान्त शास्त्रों का आधारभूत तत्व है । )
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अध्याय 5, श्लोक 10,

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥
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(ब्रह्मणि आधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न सः पापेन पद्मपत्रम् इव अम्भसा ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष सभी कर्मों को  परब्रह्म परमात्मा के प्रति समर्पित करते हुए (कर्म तथा कर्मफल में) आसक्ति को भी त्याग देता है, वह (कर्मजनित) पाप  से वैसा ही अछूता होता है, जैसे कमलपत्र जल से ।
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अध्याय 5, श्लोक 21,

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥
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(बाह्य-स्पर्शेषु-असक्तात्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् ।
सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम्-अक्षयम् अश्नुते ।)
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भावार्थ :
बाहर के (मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों से होनेवाले विषयजनित) सम्पर्क से अछूता मनुष्य जिस सुख को अपनी अन्तरात्मा में प्राप्त करता है, ब्रह्मके ध्यान में लीन उसको ही उस अक्षय सुख का अनुभव होता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 23,

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं युक्तः सुखी नरः ॥
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(शक्नोति इह एव यः सोढुम् प्राक् शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवम् वेगम् सः युक्तः सः सुखी नरः ॥)
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भावार्थ :
वह साधक जो कि इस शरीर के जीते-जी ही, शरीर का नाश होने से पहले ही काम-क्रोध से पैदा होनेवाले वेग को सहन करने में सक्षम हो जाता है, निश्चय ही वह मनुष्य योगी है और वही सुखी है ।
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अध्याय 5, श्लोक 24,
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योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव च ।
योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥
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(यः अन्तःसुखः अन्तरारामः तथा अन्तर्ज्योतिः एव यः ।
सः योगी ब्रह्मनिर्वाणम् ब्रह्मभूतः अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष अपने ही भीतर (आत्मा में ही) सुखी, रमण करता है, तथा अपना प्रकाश अपने ही भीतर प्राप्त करता है, वह योगी निर्वाणरूपी ब्रह्म से एकत्व प्राप्तकर, उसके ही स्वरूप का हो जाता है ।
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अध्याय 5, श्लोक 28,
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः
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(यतेन्द्रियमनोबुद्धिः मुनिः मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधः यः सदा मुक्तः एव सः॥)
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भावार्थ :
जो मुमुक्षु मुनि इन्द्रियों मन (अवधान) तथा बुद्धि (अर्थात् मन की प्रवृत्ति) को यत्नपूर्वक साधते हुए, इच्छा, भय तथा क्रोध से जो उनसे मुक्त रहता है, वह सदा ही मुक्त होता है ।
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’सः’ / 'saḥ' - He,

Chapter 5, shloka 3,

jñeyaḥ sa nityasannyāsī
yo na dveṣṭi na kāṅkṣati |
nirdvandvo hi mahābāho
sukhaṃ bandhātpramucyate ||
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(jñeyaḥ saḥ nityasannyāsī
yaḥ na dveṣṭi na kāṅkṣati |
nirdvandvaḥ hi mahābāho
sukham bandhāt pramucyate ||)
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Meaning :
He is indeed a true ascetic, who neither hates nor desires. free of the such opposites, O mahAbAho (arjuna)! he is easily freed from bondage.
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Chapter 5, shloka 5,

yatsāṅkhyaiḥ prāpyate sthānaṃ
tadyogairapi gamyate |
ekaṃ sāṅkhyaṃ ca yogaṃ ca
yaḥ paśyati sa paśyati ||
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(yat-sāṅkhyaiḥ prāpyate sthānam
tat yogaiḥ api gamyate |
ekam sāṅkhyam ca yogam ca
yaḥ paśyati saḥ paśyati ||)
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Meaning :
The goal that is attained by the way of sAnkhya* is the same as that is attained by means of yoga (practicing bhakti / devotion, 'niShkAma-karma' / 'self-less action', or jnAna / the way of meditation), And the one who sees that this essential truth of both is the same is the real seer.
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 ( * sAnkhya - That begins with the contemplation and discrimination between the 'prakRti' and the 'puruSha', and treating the 'Self' as the principle that is different from 'prakRti' / non-self. Though this begins with the assumption that 'self' is different from the non-self, ultimately the 'self' too dissolves with the 'non-self' and what is discovered is indescribable.)
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Chapter 5, shloka 10,
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brahmaṇyādhāya karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā karoti yaḥ |
lipyate na sa pāpena
padmapatramivāmbhasā ||
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(brahmaṇi ādhāya karmāṇi
saṅgaṃ tyaktvā karoti yaḥ |
lipyate na saḥ pāpena
padmapatram iva ambhasā ||)
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Chapter 5, shloka 21,

bāhyasparśeṣvasaktātmā
vindatyātmani yatsukham |
sa brahmayogayuktātmā
sukhamakṣayamaśnute ||
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(bāhya-sparśeṣu-asaktātmā
vindati ātmani yat sukham |
saḥ brahmayogayuktātmā
sukham-akṣayam aśnute ||)
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Meaning :
Thus is attained the bliss infinite by this consciousness, (that is freed from all action, unidentified with the action), untouched by the outward objects, That is the imperishable Bliss of Brahman, and because of merging in Brahman.
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Chapter 5, shloka 23,

śaknotīhaiva yaḥ soḍhuṃ
prākśarīravimokṣaṇāt |
kāmakrodhodbhavaṃ vegaṃ
sa yuktaḥ sa sukhī naraḥ ||
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(śaknoti iha eva yaḥ soḍhum
prāk śarīravimokṣaṇāt |
kāmakrodhodbhavam vegam
saḥ yuktaḥ saḥ sukhī naraḥ ||)
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Meaning :
Far before the body falls as dead, one who can manage to face the urges of lust and anger (and can control them) is indeed a yogi, and he alone is truly a happy man.
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Chapter 5, shloka 24,

yo:'ntaḥsukho:'ntarārāmas-
tathāntarjyotireva ca |
sa yogī brahmanirvāṇaṃ
brahmabhūto:'dhigacchati ||
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(yaḥ antaḥsukhaḥ antarārāmaḥ
tathā antarjyotiḥ eva yaḥ |
saḥ yogī brahmanirvāṇam
brahmabhūtaḥ adhigacchati ||)
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Meaning :
One who is happy and content in the Self, one who sports in, finds love and joy within, one who is a light unto oneself, is verily a yogī, the one having known Brahman, -of the form of  nirvāṇa, has become one with Brahman .

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Chapter 5, shloka 28,

yatendriyamanobuddhir-
munirmokṣaparāyaṇaḥ |
vigatecchābhayakrodho
yaḥ sadā mukta eva saḥ ||
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(yatendriyamanobuddhiḥ
muniḥ mokṣaparāyaṇaḥ |
vigatecchābhayakrodhaḥ
yaḥ sadā muktaḥ eva saḥ ||)
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Meaning :
The seeker after liberation, who practices yoga by keeping the senses, mind and intellect together in order, one who is free from desire, fear and anger is already liberated in life, and for ever.
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