आज का श्लोक, ’सा’ / 'sā',
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’सा’ / 'sā', - वह (स्त्रीवाचक)
अध्याय 2, श्लोक 69,
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
--
(या निशा सर्वभूताना्म् तस्याम् जागर्ति संयमी ।
यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतः मुनेः ॥)
--
भावार्थ :
सम्पूर्ण प्राणियों को जो रात्रि प्रतीत होती है, उसमें मन पर संयम रखनेवाला (अर्थात् निद्रा में भी स्वरूप से दृष्टि न हटानेवाला स्वरूप के प्रति जागृत) ही वस्तुतःजागृत रहता है । और जिसमें उससे अन्य समस्त प्राणी जाग्रति अनुभव करते हैं, स्वरूप को जाननेवाले को वह रात्रि सी अन्धकारयुक्त प्रतीत होती है ।
--
अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
--
(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
--
जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
--
अध्याय 11, श्लोक 12,
--
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
--
(दिवि सूर्य-सहस्रस्य भवेत्-युगपत्-उत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्यात्-भासः तस्य महात्मनः ॥)
--
भावार्थ :
आकाश में हजार सूर्य यदि एक साथ उदय हो उठें तो उनसे उत्पन्न होनेवाला प्रकाश भी कदाचित् ही उन महात्मा (श्रीकृष्ण) के उस प्रकाश के तुल्य हो ।
--
अध्याय 17, श्लोक 2,
--
श्रीभगवान् उवाच :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥
--
(त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी च-एव तामसी च-इति तां शृणु ॥)
--
भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
सभी देहधारियों को स्वभाव से प्राप्त उनकी श्रद्धा, तीन प्रकार की होती है । वह (श्रद्धा) किस प्रकार से सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होती है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 30,
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
--
(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धम् मोक्षम् च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥)
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! जिस बुद्धि द्वारा यह जाना जाता है कि कौन सी प्रवृत्ति और निवृत्ति कल्याणकारी है और कौन सी नहीं है, कौन सा कार्य विहित और कौन सा अविहित है, किसे करने से भय या अभय की, बन्धन अथवा बन्धन से मुक्ति की प्राप्ति होगी, वह बुद्धि सात्त्विकी बुद्धि है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 31,
यया धर्ममधर्मं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥
--
(यया धर्मम् अधर्मम् च कार्यम् अकार्यम् एव च ।
अ-यथावत् प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥)
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थतः नहीं देखता, जिसे इस बारे में स्पष्टता नहीं होती वह बुद्धि राजसिक है ।
--
--
’सा’ / 'sā', - she,
Chapter 2, shloka 69,
yā niśā sarvabhūtānāṃ
tasyāṃ jāgarti saṃyamī |
yasyāṃ jāgrati bhūtāni
sā niśā paśyato muneḥ ||
--
(yā niśā sarvabhūtānām
tasyām jāgarti saṃyamī |
yasyām jāgrati bhūtāni
sā niśā paśyataḥ muneḥ ||)
--
What appears as night to all beings, A man of restraint keeps awake in that. And where-in beings wake-up, is as night (where darkness of self-ignorance prevails over) to the seeker who contemplates over Self.
Chapter 6, shloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
--
(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
--
Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
--
Chapter 11, shloka 12,
--
divi sūryasahasrasya
bhavedyugapadutthitā |
yadi bhāḥ sadṛśī sā syād-
bhāsastasya mahātmanaḥ ||
--
(divi sūrya-sahasrasya
bhavet-yugapat-utthitā |
yadi bhāḥ sadṛśī sā syāt-
bhāsaḥ tasya mahātmanaḥ ||)
--
Meaning :
Even if a thousand suns rise up and shine together in the sky, the radiance they would spread out, will be nothing in comparison to the splendor of this Great Being (kriShNa)
--
Chapter 17, shloka 2,
śrībhagavān uvāca :
trividhā bhavati śraddhā
dehināṃ sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī caiva
tāmasī ceti tāṃ śṛṇu ||
--
(trividhā bhavati śraddhā
dehinām sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī ca-eva
tāmasī ca-iti tāṃ śṛṇu ||)
--
Meaning :
Lord shrikrishNa said, -
"According to the natural tendencies of the body-mind, the 'faith' associated with them is of three kinds - 'sāttvikī' ( of harmony), 'rājasī' ( of passion) or of 'tāmasī ' (of indolence)."
--
Chapter 18, shloka 30,
pravṛttiṃ ca nivṛttiṃ ca
kāryākārye bhayābhaye |
bandhaṃ mokṣaṃ ca yā vetti
buddhiḥ sā pārtha sāttvikī ||
--
(pravṛttim ca nivṛttim ca
kāryākārye bhayābhaye |
bandham mokṣam ca yā vetti
buddhiḥ sā pārth sāttvikī ||)
--
Meaning :
The tendency of the intellect that helps one know correctly what actions are right and proper to be done, and what are not so, what should be feared of and what should be not, what will lead to bondage and what to freedom (liberation), is called 'sāttvikī' (that maintains harmony of mind).
--
Chapter 18, shloka 31,
yayā dharmamadharmaṃ ca
kāryaṃ cākāryameva ca |
ayathāvatprajānāti
buddhiḥ sā pārtha rājasī ||
--
(yayā dharmam adharmam ca
kāryam akāryam eva ca |
a-yathāvat prajānāti
buddhiḥ sā pārtha rājasī ||)
--
Meaning :
The intellect that does not help one distinguish the dharma from adharma, and the right duty from what is not right, O partha (arjuna)! is of the rājasī kind.
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’सा’ / 'sā', - वह (स्त्रीवाचक)
अध्याय 2, श्लोक 69,
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
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(या निशा सर्वभूताना्म् तस्याम् जागर्ति संयमी ।
यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतः मुनेः ॥)
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भावार्थ :
सम्पूर्ण प्राणियों को जो रात्रि प्रतीत होती है, उसमें मन पर संयम रखनेवाला (अर्थात् निद्रा में भी स्वरूप से दृष्टि न हटानेवाला स्वरूप के प्रति जागृत) ही वस्तुतःजागृत रहता है । और जिसमें उससे अन्य समस्त प्राणी जाग्रति अनुभव करते हैं, स्वरूप को जाननेवाले को वह रात्रि सी अन्धकारयुक्त प्रतीत होती है ।
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अध्याय 6, श्लोक 19,
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
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(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
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जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
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अध्याय 11, श्लोक 12,
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दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
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(दिवि सूर्य-सहस्रस्य भवेत्-युगपत्-उत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्यात्-भासः तस्य महात्मनः ॥)
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भावार्थ :
आकाश में हजार सूर्य यदि एक साथ उदय हो उठें तो उनसे उत्पन्न होनेवाला प्रकाश भी कदाचित् ही उन महात्मा (श्रीकृष्ण) के उस प्रकाश के तुल्य हो ।
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अध्याय 17, श्लोक 2,
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श्रीभगवान् उवाच :
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥
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(त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी च-एव तामसी च-इति तां शृणु ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
सभी देहधारियों को स्वभाव से प्राप्त उनकी श्रद्धा, तीन प्रकार की होती है । वह (श्रद्धा) किस प्रकार से सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होती है, उसे सुनो ।
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अध्याय 18, श्लोक 30,
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
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(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धम् मोक्षम् च या वेत्ति वुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥)
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! जिस बुद्धि द्वारा यह जाना जाता है कि कौन सी प्रवृत्ति और निवृत्ति कल्याणकारी है और कौन सी नहीं है, कौन सा कार्य विहित और कौन सा अविहित है, किसे करने से भय या अभय की, बन्धन अथवा बन्धन से मुक्ति की प्राप्ति होगी, वह बुद्धि सात्त्विकी बुद्धि है ।
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अध्याय 18, श्लोक 31,
यया धर्ममधर्मं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥
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(यया धर्मम् अधर्मम् च कार्यम् अकार्यम् एव च ।
अ-यथावत् प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥)
भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थतः नहीं देखता, जिसे इस बारे में स्पष्टता नहीं होती वह बुद्धि राजसिक है ।
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’सा’ / 'sā', - she,
Chapter 2, shloka 69,
yā niśā sarvabhūtānāṃ
tasyāṃ jāgarti saṃyamī |
yasyāṃ jāgrati bhūtāni
sā niśā paśyato muneḥ ||
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(yā niśā sarvabhūtānām
tasyām jāgarti saṃyamī |
yasyām jāgrati bhūtāni
sā niśā paśyataḥ muneḥ ||)
--
What appears as night to all beings, A man of restraint keeps awake in that. And where-in beings wake-up, is as night (where darkness of self-ignorance prevails over) to the seeker who contemplates over Self.
Chapter 6, shloka 19,
yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
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(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
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Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
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Chapter 11, shloka 12,
--
divi sūryasahasrasya
bhavedyugapadutthitā |
yadi bhāḥ sadṛśī sā syād-
bhāsastasya mahātmanaḥ ||
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(divi sūrya-sahasrasya
bhavet-yugapat-utthitā |
yadi bhāḥ sadṛśī sā syāt-
bhāsaḥ tasya mahātmanaḥ ||)
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Meaning :
Even if a thousand suns rise up and shine together in the sky, the radiance they would spread out, will be nothing in comparison to the splendor of this Great Being (kriShNa)
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Chapter 17, shloka 2,
śrībhagavān uvāca :
trividhā bhavati śraddhā
dehināṃ sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī caiva
tāmasī ceti tāṃ śṛṇu ||
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(trividhā bhavati śraddhā
dehinām sā svabhāvajā |
sāttvikī rājasī ca-eva
tāmasī ca-iti tāṃ śṛṇu ||)
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Meaning :
Lord shrikrishNa said, -
"According to the natural tendencies of the body-mind, the 'faith' associated with them is of three kinds - 'sāttvikī' ( of harmony), 'rājasī' ( of passion) or of 'tāmasī ' (of indolence)."
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Chapter 18, shloka 30,
pravṛttiṃ ca nivṛttiṃ ca
kāryākārye bhayābhaye |
bandhaṃ mokṣaṃ ca yā vetti
buddhiḥ sā pārtha sāttvikī ||
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(pravṛttim ca nivṛttim ca
kāryākārye bhayābhaye |
bandham mokṣam ca yā vetti
buddhiḥ sā pārth sāttvikī ||)
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Meaning :
The tendency of the intellect that helps one know correctly what actions are right and proper to be done, and what are not so, what should be feared of and what should be not, what will lead to bondage and what to freedom (liberation), is called 'sāttvikī' (that maintains harmony of mind).
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Chapter 18, shloka 31,
yayā dharmamadharmaṃ ca
kāryaṃ cākāryameva ca |
ayathāvatprajānāti
buddhiḥ sā pārtha rājasī ||
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(yayā dharmam adharmam ca
kāryam akāryam eva ca |
a-yathāvat prajānāti
buddhiḥ sā pārtha rājasī ||)
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Meaning :
The intellect that does not help one distinguish the dharma from adharma, and the right duty from what is not right, O partha (arjuna)! is of the rājasī kind.
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