आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’
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’सः’ / ’saḥ’ - वह
अध्याय 18, श्लोक 8,
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥
--
(दुःखम् इति एव यत् कर्म काय-क्लेश-भयात् त्यजेत् ।
सः कृत्वा राजसम् त्यागम् न एव कर्मफलम् लभेत् ॥)
भावार्थ :
कर्ममात्र ही दुःखरूप (क्लेश का कारण) है, ऐसा सोचकर यदि कोई शरीर को क्लेश न उठाना पड़े इस भय से कर्तव्य कर्मों का करना भी त्याग दे तो इस प्रकार का राजस त्याग करने पर, इस त्याग के फल की प्राप्ति भी उसे नहीं होती ।
--
अध्याय 18, श्लोक 9,
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥
--
(कार्यम् इति एव यत् कर्म नियतम् क्रियते अर्जुन ।
सङ्गम् त्यक्त्वा फलम् च एव सः त्यागः सात्त्विकः मतः ॥)
--
भावार्थ :
शास्त्रविहित त्याग, अर्थात् ऐसा कर्म जिसे करना कर्तव्य है, जो कर्तव्य के रूप में प्राप्त हुआ है, आसक्ति से रहित होकर तथा फल की अभिलाषा न करते हुए जिसे किया जाना चाहिए, वही त्याग सात्त्विक है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 11,
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥
--
(न हि देहभृता शक्यम् त्यक्तुम् कर्माणि अशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी सः त्यागी इति अभिधीयते ॥)
--
क्योंकि किसी भी देहधारी के लिए यह तो संभव ही नहीं कि वह कर्ममात्र को, सभी कर्मों को त्याग दे । हाँ, यह अवश्य ही संभव है कि वह (कर्म के फल में आसक्ति न रखते हुए, इस प्रकार) कर्मफल को ही त्याग दे, और वह (ऐसा मनुष्य) वास्तविक त्यागी जाना जाता है ।
टिप्पणी :
और इस प्रकार से ’त्याग’ करने की योग्यता उसे ही प्राप्त होती है जो ’सांख्य-योग’ अर्थात् ’बुद्धि-योग’ से ’कर्ता’ के स्वरूप का अनुसंधान करता हुआ एक चैतन्यघन परमात्मा से ही सब कुछ उद्भूत्, अवस्थित और पुनः विलीन होता है, इस निष्ठा को प्राप्त हो जाता है । पुनः इस निष्ठा को प्राप्त होने हेतु भी पात्रता / अधिकारिता का होना अपरिहार्य है । और यह विवेक, वैराग्य, शम-दम आदि षट्-संपत्ति तथा मुमुक्षा के परिपक्व होने पर अपने आप होता है । तब मनुष्य के हृदय में अवस्थित वह तत्व स्वयं ही अनुग्रह करता है, जिसकी आवरण और विक्षेप शक्ति के कारण इससे पहले तक जीव अज्ञान में डूबा हुआ होता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 16,
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धिवान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥
--
(तत्र एवम् सति कर्तारम् आत्मानम् केवलम् तु यः ।
पश्यति अकृतबुद्धित्वात् न सः पश्यति दुर्मतिः ॥)
--
भावार्थ :
जैसा अध्याय 3 के श्लोक 27, में संक्षेप में कहा गया है, उसका ही विस्तार से वर्णन करते हुए इस अध्याय के पिछले श्लोकों में ’कर्म’ के होने के बारे में, ’कर्म’ के स्वरूप पर विवेचन में यह स्पष्ट किया गया है कि सारे ’कर्म’ प्रकृति के द्वारा उसके तीन गुणों के माध्यम से संपन्न किए जाते हैं, किन्तु अहंकार-बुद्धि से मोहित मनुष्य ’मैं कर्ता हूँ ।’ इस मान्यता से ग्रस्त हो जाया करता है ।...
(सारे ’कर्म’ प्रकृति के द्वारा उसके तीन गुणों के माध्यम से संपन्न किए जाते हैं) ऐसा होते हुए भी, इस सच्चाई को केवल बुद्धिमान ही देख पाता है, जबकि जो मनुष्य केवल अपने-आपके ही स्वतन्त्र कर्ता होने की मान्यता से ग्रस्त होता है, दुर्बुद्धि से ग्रस्त वह मूढमति, इसे नहीं देख पाता ।
--
[ टिप्पणी :
श्लोक 3, अध्याय 27,
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
--
(प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढ-आत्मा कर्ता-अहम्-इति मन्यते ।)
--
भावार्थ :
सभी कर्म बिना किसी अपवाद के, प्रकृति के ही (तीन) गुणों के माध्यम से घटित हुआ करते हैं । किन्तु ’मैं-बुद्धि’ के अभिमान से विमूढ मनुष्य ’मैं कर्ता हूँ’ यह मान्य कर बैठते हैं । ]
--
अध्याय 18, श्लोक 17,
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
*
( यस्य न अहंकृतः भावः बुद्धिः यस्य न लिप्यते ।
हत्वा-अपि स इमान् लोकान् न हन्ति न निबध्यते ॥)
--
भावार्थ :
जिस मनुष्य के मन में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसी भावना नहीं है, और जिसकी बुद्धि इस भावना से अलिप्त होती है, वह इन समस्त लोकों को मारकर भी वस्तुतः न तो किसी की हत्या करता है, और न हत्या के इस पाप का भागी ही होता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 71,
--
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥
--
(श्रद्धावान् अनसूयः च शृणुयात् अपि यः नरः ।
सः अपि मुक्तः शुभान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् ॥)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और इस शास्त्र में दोषदृष्टि न रखता हुआ इसे श्रवण भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर उत्तम कर्मकरनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ।
--
’सः’ / 'saḥ' - he, that
Chapter 18, shloka 8,
--
duḥkhamityeva yatkarma
kāyakleśabhayāttyajet |
sa kṛtvā rājasaṃ tyāgaṃ
naiva tyāgaphalaṃ labhet ||
--
(duḥkham iti eva yatkarma
kāya-kleśa-bhayāt tyajet |
saḥ kṛtvā rājasam tyāgam
na eva karmaphalaṃ labhet ||)
--
Meaning :
Because the Action causes pain and discomfort to body, renouncing of such an obligatory duty, is a kind of rājasa tyāga and is in vain, because yields no fruit of renunciation what-so-ever.
--
Note : the fruit of renuciation is mentle peace and harmony, which is not attained when one renounces the duties, because of compulsion or fear.
See next shloka that explains how a sāttvikaḥ tyāga is different from rājasa tyāga .
Chapter 18, shloka 9,
kāryamityeva yatkarma
niyataṃ kriyate:'rjuna |
saṅgaṃ tyaktvā phalaṃ caiva
sa tyāgaḥ sāttviko mataḥ ||
--
(kāryam iti eva yatkarma
niyatam kriyate arjuna |
saṅgam tyaktvā phalaṃ ca eva
saḥ tyāgaḥ sāttvikaḥ mataḥ ||)
--
Meaning :
The action that is performed for the sake of duty, without no attachment or anticipation of anything in return, it is sAttvika action, arjuna!
--
Chapter 18, shloka 11,
na hi dehabhṛtā śakyaṃ
tyaktuṃ karmāṇyaśeṣataḥ |
yastu karmaphalatyāgī
sa tyāgītyabhidhīyate ||
--
(na hi dehabhṛtā śakyam
tyaktum karmāṇi aśeṣataḥ |
yastu karmaphalatyāgī
saḥ tyāgī iti abhidhīyate ||)
--
Meaning :
As long as the sense of identity with the body persists, it is not possible for one togive up actions completely. But it is always possible to give up the fruits of action and one who understands and can do so, is a tyāgī indeed.
Chapter 18, shloka 16,
tatraivaṃ sati kartāram-
ātmānaṃ kevalaṃ tu yaḥ |
paśyatyakṛtabuddhivān-
na sa paśyati durmatiḥ ||
--
(tatra evam sati kartāram
ātmānam kevalam tu yaḥ |
paśyati akṛtabuddhitvāt
na saḥ paśyati durmatiḥ ||)
--
Meaning :
In the earlier shlokas 1 to 15 of this chapter 18, the nature and essence of 'karma' has been explained in detail, and one who can renounce the Action by a right understanding of how originally a 'karma' / Action takes place, only because by means of 3 guṇa, (attributes) of prakṛti arranges so, can easily get rid of the false notion; 'I do / I do not do (perform) any action.'
Further help in this can be obtained by the shloka 27 of chapter 3, where the same truth has been pointed out in the following words:
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ |
ahaṅkāravimūḍhātmā
kartāhamiti manyate ||
--
(prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ |
ahaṅkāravimūḍha-ātmā
kartā-aham-iti manyate || )
--
Meaning :
All actions happen, because by means of 3 guṇa, (attributes), prakṛti arranges so, but the man under the illusion / false notion of ego and thence by 'I do / I have to do'-idea, accepts himself as the one responsible for them. (If this idea could be seen as a false notion only, one at once renounces the fruit of action as well.)
--
Chapter 18, shloka 17,
yasya nāhaṃkṛto bhāvo
buddhiryasya na lipyate |
hatvāpi sa imām̐llokān-
na hanti na nibadhyate ||
*
( yasya na ahaṃkṛtaḥ bhāvaḥ
buddhiḥ yasya na lipyate |
hatvā-api sa imān lokān
na hanti na nibadhyate ||)
--
Meaning :
One who is not possessed by ego, and whose intellect is not entangled, though he may appear killing men in this world, does not kill at all. Nor is he bound by his actions and the sins consequent to them.
--
Chapter 18, shloka 71,
--
śraddhāvānanasūyaśca
śṛṇuyādapi yo naraḥ |
so:'pi muktaḥ śubhām̐llokān-
prāpnuyātpuṇyakarmaṇām ||
--
(śraddhāvān anasūyaḥ ca
śṛṇuyāt api yaḥ naraḥ |
saḥ api muktaḥ śubhān lokān
prāpnuyāt puṇyakarmaṇām ||)
--
Meaning :
One who with full trust, and with no doubts what-so-ever in the truth of this text, listens to this holy scripture, shall be freed of all karma and shall attain the holy loka of auspicious beings.
--
--
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’सः’ / ’saḥ’ - वह
अध्याय 18, श्लोक 8,
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥
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(दुःखम् इति एव यत् कर्म काय-क्लेश-भयात् त्यजेत् ।
सः कृत्वा राजसम् त्यागम् न एव कर्मफलम् लभेत् ॥)
भावार्थ :
कर्ममात्र ही दुःखरूप (क्लेश का कारण) है, ऐसा सोचकर यदि कोई शरीर को क्लेश न उठाना पड़े इस भय से कर्तव्य कर्मों का करना भी त्याग दे तो इस प्रकार का राजस त्याग करने पर, इस त्याग के फल की प्राप्ति भी उसे नहीं होती ।
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अध्याय 18, श्लोक 9,
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥
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(कार्यम् इति एव यत् कर्म नियतम् क्रियते अर्जुन ।
सङ्गम् त्यक्त्वा फलम् च एव सः त्यागः सात्त्विकः मतः ॥)
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भावार्थ :
शास्त्रविहित त्याग, अर्थात् ऐसा कर्म जिसे करना कर्तव्य है, जो कर्तव्य के रूप में प्राप्त हुआ है, आसक्ति से रहित होकर तथा फल की अभिलाषा न करते हुए जिसे किया जाना चाहिए, वही त्याग सात्त्विक है ।
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अध्याय 18, श्लोक 11,
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥
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(न हि देहभृता शक्यम् त्यक्तुम् कर्माणि अशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी सः त्यागी इति अभिधीयते ॥)
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क्योंकि किसी भी देहधारी के लिए यह तो संभव ही नहीं कि वह कर्ममात्र को, सभी कर्मों को त्याग दे । हाँ, यह अवश्य ही संभव है कि वह (कर्म के फल में आसक्ति न रखते हुए, इस प्रकार) कर्मफल को ही त्याग दे, और वह (ऐसा मनुष्य) वास्तविक त्यागी जाना जाता है ।
टिप्पणी :
और इस प्रकार से ’त्याग’ करने की योग्यता उसे ही प्राप्त होती है जो ’सांख्य-योग’ अर्थात् ’बुद्धि-योग’ से ’कर्ता’ के स्वरूप का अनुसंधान करता हुआ एक चैतन्यघन परमात्मा से ही सब कुछ उद्भूत्, अवस्थित और पुनः विलीन होता है, इस निष्ठा को प्राप्त हो जाता है । पुनः इस निष्ठा को प्राप्त होने हेतु भी पात्रता / अधिकारिता का होना अपरिहार्य है । और यह विवेक, वैराग्य, शम-दम आदि षट्-संपत्ति तथा मुमुक्षा के परिपक्व होने पर अपने आप होता है । तब मनुष्य के हृदय में अवस्थित वह तत्व स्वयं ही अनुग्रह करता है, जिसकी आवरण और विक्षेप शक्ति के कारण इससे पहले तक जीव अज्ञान में डूबा हुआ होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 16,
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धिवान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥
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(तत्र एवम् सति कर्तारम् आत्मानम् केवलम् तु यः ।
पश्यति अकृतबुद्धित्वात् न सः पश्यति दुर्मतिः ॥)
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भावार्थ :
जैसा अध्याय 3 के श्लोक 27, में संक्षेप में कहा गया है, उसका ही विस्तार से वर्णन करते हुए इस अध्याय के पिछले श्लोकों में ’कर्म’ के होने के बारे में, ’कर्म’ के स्वरूप पर विवेचन में यह स्पष्ट किया गया है कि सारे ’कर्म’ प्रकृति के द्वारा उसके तीन गुणों के माध्यम से संपन्न किए जाते हैं, किन्तु अहंकार-बुद्धि से मोहित मनुष्य ’मैं कर्ता हूँ ।’ इस मान्यता से ग्रस्त हो जाया करता है ।...
(सारे ’कर्म’ प्रकृति के द्वारा उसके तीन गुणों के माध्यम से संपन्न किए जाते हैं) ऐसा होते हुए भी, इस सच्चाई को केवल बुद्धिमान ही देख पाता है, जबकि जो मनुष्य केवल अपने-आपके ही स्वतन्त्र कर्ता होने की मान्यता से ग्रस्त होता है, दुर्बुद्धि से ग्रस्त वह मूढमति, इसे नहीं देख पाता ।
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[ टिप्पणी :
श्लोक 3, अध्याय 27,
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
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(प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढ-आत्मा कर्ता-अहम्-इति मन्यते ।)
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भावार्थ :
सभी कर्म बिना किसी अपवाद के, प्रकृति के ही (तीन) गुणों के माध्यम से घटित हुआ करते हैं । किन्तु ’मैं-बुद्धि’ के अभिमान से विमूढ मनुष्य ’मैं कर्ता हूँ’ यह मान्य कर बैठते हैं । ]
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अध्याय 18, श्लोक 17,
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
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( यस्य न अहंकृतः भावः बुद्धिः यस्य न लिप्यते ।
हत्वा-अपि स इमान् लोकान् न हन्ति न निबध्यते ॥)
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भावार्थ :
जिस मनुष्य के मन में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसी भावना नहीं है, और जिसकी बुद्धि इस भावना से अलिप्त होती है, वह इन समस्त लोकों को मारकर भी वस्तुतः न तो किसी की हत्या करता है, और न हत्या के इस पाप का भागी ही होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 71,
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श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥
--
(श्रद्धावान् अनसूयः च शृणुयात् अपि यः नरः ।
सः अपि मुक्तः शुभान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् ॥)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और इस शास्त्र में दोषदृष्टि न रखता हुआ इसे श्रवण भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर उत्तम कर्मकरनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ।
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’सः’ / 'saḥ' - he, that
Chapter 18, shloka 8,
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duḥkhamityeva yatkarma
kāyakleśabhayāttyajet |
sa kṛtvā rājasaṃ tyāgaṃ
naiva tyāgaphalaṃ labhet ||
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(duḥkham iti eva yatkarma
kāya-kleśa-bhayāt tyajet |
saḥ kṛtvā rājasam tyāgam
na eva karmaphalaṃ labhet ||)
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Meaning :
Because the Action causes pain and discomfort to body, renouncing of such an obligatory duty, is a kind of rājasa tyāga and is in vain, because yields no fruit of renunciation what-so-ever.
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Note : the fruit of renuciation is mentle peace and harmony, which is not attained when one renounces the duties, because of compulsion or fear.
See next shloka that explains how a sāttvikaḥ tyāga is different from rājasa tyāga .
Chapter 18, shloka 9,
kāryamityeva yatkarma
niyataṃ kriyate:'rjuna |
saṅgaṃ tyaktvā phalaṃ caiva
sa tyāgaḥ sāttviko mataḥ ||
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(kāryam iti eva yatkarma
niyatam kriyate arjuna |
saṅgam tyaktvā phalaṃ ca eva
saḥ tyāgaḥ sāttvikaḥ mataḥ ||)
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Meaning :
The action that is performed for the sake of duty, without no attachment or anticipation of anything in return, it is sAttvika action, arjuna!
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Chapter 18, shloka 11,
na hi dehabhṛtā śakyaṃ
tyaktuṃ karmāṇyaśeṣataḥ |
yastu karmaphalatyāgī
sa tyāgītyabhidhīyate ||
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(na hi dehabhṛtā śakyam
tyaktum karmāṇi aśeṣataḥ |
yastu karmaphalatyāgī
saḥ tyāgī iti abhidhīyate ||)
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Meaning :
As long as the sense of identity with the body persists, it is not possible for one togive up actions completely. But it is always possible to give up the fruits of action and one who understands and can do so, is a tyāgī indeed.
Chapter 18, shloka 16,
tatraivaṃ sati kartāram-
ātmānaṃ kevalaṃ tu yaḥ |
paśyatyakṛtabuddhivān-
na sa paśyati durmatiḥ ||
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(tatra evam sati kartāram
ātmānam kevalam tu yaḥ |
paśyati akṛtabuddhitvāt
na saḥ paśyati durmatiḥ ||)
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Meaning :
In the earlier shlokas 1 to 15 of this chapter 18, the nature and essence of 'karma' has been explained in detail, and one who can renounce the Action by a right understanding of how originally a 'karma' / Action takes place, only because by means of 3 guṇa, (attributes) of prakṛti arranges so, can easily get rid of the false notion; 'I do / I do not do (perform) any action.'
Further help in this can be obtained by the shloka 27 of chapter 3, where the same truth has been pointed out in the following words:
prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ |
ahaṅkāravimūḍhātmā
kartāhamiti manyate ||
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(prakṛteḥ kriyamāṇāni
guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ |
ahaṅkāravimūḍha-ātmā
kartā-aham-iti manyate || )
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Meaning :
All actions happen, because by means of 3 guṇa, (attributes), prakṛti arranges so, but the man under the illusion / false notion of ego and thence by 'I do / I have to do'-idea, accepts himself as the one responsible for them. (If this idea could be seen as a false notion only, one at once renounces the fruit of action as well.)
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Chapter 18, shloka 17,
yasya nāhaṃkṛto bhāvo
buddhiryasya na lipyate |
hatvāpi sa imām̐llokān-
na hanti na nibadhyate ||
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( yasya na ahaṃkṛtaḥ bhāvaḥ
buddhiḥ yasya na lipyate |
hatvā-api sa imān lokān
na hanti na nibadhyate ||)
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Meaning :
One who is not possessed by ego, and whose intellect is not entangled, though he may appear killing men in this world, does not kill at all. Nor is he bound by his actions and the sins consequent to them.
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Chapter 18, shloka 71,
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śraddhāvānanasūyaśca
śṛṇuyādapi yo naraḥ |
so:'pi muktaḥ śubhām̐llokān-
prāpnuyātpuṇyakarmaṇām ||
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(śraddhāvān anasūyaḥ ca
śṛṇuyāt api yaḥ naraḥ |
saḥ api muktaḥ śubhān lokān
prāpnuyāt puṇyakarmaṇām ||)
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Meaning :
One who with full trust, and with no doubts what-so-ever in the truth of this text, listens to this holy scripture, shall be freed of all karma and shall attain the holy loka of auspicious beings.
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