आज का श्लोक, ’साधर्म्यम्’ / 'sAdharmyaM',
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’साधर्म्यम्’ / 'sAdharmyaM' - समान स्वरूपगत साम्य,
अध्याय 14, श्लोक 2,
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥
--
(इदम् ज्ञानम्-उपाश्रित्य मम साधर्म्यम् आगताः ।
सर्गे अपि न उपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥)
--
भावार्थ :
इस (ज्ञानों में भी उत्तम) ज्ञान को आश्रय बनाकर इसके माध्यम से मुझमें स्थित हुए मनुष्य न तो सृष्टि के आदि में न तो उत्पन्न होते हैं और न प्रलयकाल में व्यथित होते हैं ।
--
टिप्पणी : जो मनुष्य इस ’मैं’ वृत्ति के स्रोत को जानकर उस स्रोत में दृढ़ रहते हैं, वे इस वृत्ति के उदय-अस्त होने से प्रतीत होनेवाली ’व्यक्ति-सत्ता’ से अपना तादात्म्य नहीं रखते । यह ’व्यक्ति-सत्ता’ औपचारिक अस्तित्व है, जो न तो सतत् है, न शाश्वत् । जबकि इसका अधिष्ठान अविकारी परमात्म-चैतन्य है, जो सृष्टि या प्रलय से अप्रभावित रहता है ।
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’साधर्म्यम्’ / 'sAdharmyaM' - identity with the essential nature.
Chapter 14, shloka 2,
idaM jnAnamupAshritya
mama sAdharmyamAgatAH |
sarge'pi nopajAyante
pralaye na vyathanti cha ||
--
Meaning :
Having come across this wisdom, that is superior to all other knowledge(s), one attains ME, and shares MY Reality. Such a one is neither born with the appearance of manifestation (as a person in an apparent world), nor is in distress at the time of dissolution of such a manifestation.
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’साधर्म्यम्’ / 'sAdharmyaM' - समान स्वरूपगत साम्य,
अध्याय 14, श्लोक 2,
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥
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(इदम् ज्ञानम्-उपाश्रित्य मम साधर्म्यम् आगताः ।
सर्गे अपि न उपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥)
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भावार्थ :
इस (ज्ञानों में भी उत्तम) ज्ञान को आश्रय बनाकर इसके माध्यम से मुझमें स्थित हुए मनुष्य न तो सृष्टि के आदि में न तो उत्पन्न होते हैं और न प्रलयकाल में व्यथित होते हैं ।
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टिप्पणी : जो मनुष्य इस ’मैं’ वृत्ति के स्रोत को जानकर उस स्रोत में दृढ़ रहते हैं, वे इस वृत्ति के उदय-अस्त होने से प्रतीत होनेवाली ’व्यक्ति-सत्ता’ से अपना तादात्म्य नहीं रखते । यह ’व्यक्ति-सत्ता’ औपचारिक अस्तित्व है, जो न तो सतत् है, न शाश्वत् । जबकि इसका अधिष्ठान अविकारी परमात्म-चैतन्य है, जो सृष्टि या प्रलय से अप्रभावित रहता है ।
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’साधर्म्यम्’ / 'sAdharmyaM' - identity with the essential nature.
Chapter 14, shloka 2,
idaM jnAnamupAshritya
mama sAdharmyamAgatAH |
sarge'pi nopajAyante
pralaye na vyathanti cha ||
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Meaning :
Having come across this wisdom, that is superior to all other knowledge(s), one attains ME, and shares MY Reality. Such a one is neither born with the appearance of manifestation (as a person in an apparent world), nor is in distress at the time of dissolution of such a manifestation.
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