आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (12)
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’सः’ / ’saḥ’ - वह,
अध्याय 12, श्लोक 14,
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनिबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
--
(सन्तुष्टः सततम् योगी यतात्मा दृड्ढनिश्चयः ।
मयि-अर्पित-मनोबुद्धिः यः मे भक्तः सः मे प्रियः ॥)
--
भावार्थ :
वह योगी, मेरा वह भक्त, जो निरंतर मुझमें अर्पित मन एवं बुद्धियुक्त हुआ सन्तुष्ट रहता है, मेरा प्रिय है ।
--
अध्याय 12, श्लोक 15,
--
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥
--
(यस्मात् न उद्विजते लोकः लोकात् न उद्विजते च यः ।
हर्ष-अमर्ष-भय-उद्वेगैः मुक्तः यः सः च मे प्रियः ॥)
--
भावार्थ :
जिससे कोई दूसरा उद्वेग को नहीं प्राप्त होता और जो स्वयं भी किसी दूसरे से उद्वेग को नहीं प्राप्त होता, जो हर्ष, ईर्ष्याजनित क्लेश, भय आदि से उत्पान उद्वेगों से रहित है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
--
अध्याय 12, श्लोक 16,
--
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
--
(अनपेक्षः शुचिः दक्षः उदासीनः गतव्यथः ।
सर्व-आरम्भ-परित्यागी यः मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥)
--
भावार्थ :
जो किसी भी आकाङ्क्षा से रहित, बाहर-भीतर की शुद्धता के प्रति सजग, पक्षपात से रहित है, जिसकी व्यथाएँ विलीन हो चुकी हैं, जो कर्तृत्व ( 'मैं कर्ता हूँ' - इस ) बुद्धि से ग्रस्त नहीं है, ऐसा मेरा भक्त, मुझे प्रिय है ।
--
अध्याय 12, श्लोक 17,
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥
--
(यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभ-अशुभ-परित्यागी भक्तिमान् यः सः मे प्रियः ॥)
--
भावार्थ :
जो न इष्ट वस्तु की प्राप्ति में हर्षित और न अनिष्ट की प्राप्ति में उद्विग्न होता है, जो न शोक करता है, न कामना, शुभ और अशुभ दोनों को समान समझता हुआ दोनों को त्याग देनेवाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
--
’सः’ / ’saḥ’ - he,
Chapter 12, shloka 14,
santuṣṭaḥ satataṃ yogī
yatātmā dṛḍhaniścayaḥ |
mayyarpitamanobuddhir-
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ ||
--
(santuṣṭaḥ satatam yogī
yatātmā dṛḍḍhaniścayaḥ |
mayi-arpita-manobuddhiḥ
yaḥ me bhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
--
Meaning :
Allways contented, abiding in Me moment to moment, and has firm resolve of practicing yoga. Having dedicated mind and intellect to Me, such a devotee is beloved to Me.
--
Chapter 12, shloka 15,
yasmānnodvijate loko
lokānnodvijate ca yaḥ |
harṣāmarṣabhayodvegair-
mukto yaḥ sa ca me priyaḥ ||
--
(yasmāt na udvijate lokaḥ
lokāt na udvijate ca yaḥ |
harṣa-amarṣa-bhaya-udvegaiḥ
muktaḥ yaḥ ca saḥ me priyaḥ ||)
--
Meaning :
One who does not annoy the world, nor is annoyed by the world, who is free from Elation, anger, fear and anxiety, such a devotee is dear to Me.
--
Chapter 12, shloka 16,
anapekṣaḥ śucirdakṣa
udāsīno gatavyathaḥ |
sarvārambhaparityāgī
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ ||
--
(anapekṣaḥ śuciḥ dakṣaḥ
udāsīnaḥ gatavyathaḥ |
sarva-ārambha-parityāgī
yaḥ madbhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
--
Meaning :
One who expects nothing, pure and clean in life, heart and mind, careful, unattached, has overcome misery, Takes no intiative in any enterprise (since has got rid of the sense, 'I do, and actions are done by me'.), such a devotee is beloved to Me.
--
Chapter 12, shloka 17,
yo na hṛṣyati na dveṣṭi
na śocati na kāṅkṣati |
śubhāśubhaparityāgī
bhaktimānyaḥ sa me priyaḥ ||
--
(yo na hṛṣyati na dveṣṭi
na śocati na kāṅkṣati |
śubha-aśubha-parityāgī
bhaktimān yaḥ saḥ me priyaḥ ||)
--
Meaning :
My devotee who neither rejoices when a desired result is achieved, nor is disappointed if an undesired and unfavorable one is obtained by him, is beloved to Me.
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’सः’ / ’saḥ’ - वह,
अध्याय 12, श्लोक 14,
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनिबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
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(सन्तुष्टः सततम् योगी यतात्मा दृड्ढनिश्चयः ।
मयि-अर्पित-मनोबुद्धिः यः मे भक्तः सः मे प्रियः ॥)
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भावार्थ :
वह योगी, मेरा वह भक्त, जो निरंतर मुझमें अर्पित मन एवं बुद्धियुक्त हुआ सन्तुष्ट रहता है, मेरा प्रिय है ।
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अध्याय 12, श्लोक 15,
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यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥
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(यस्मात् न उद्विजते लोकः लोकात् न उद्विजते च यः ।
हर्ष-अमर्ष-भय-उद्वेगैः मुक्तः यः सः च मे प्रियः ॥)
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भावार्थ :
जिससे कोई दूसरा उद्वेग को नहीं प्राप्त होता और जो स्वयं भी किसी दूसरे से उद्वेग को नहीं प्राप्त होता, जो हर्ष, ईर्ष्याजनित क्लेश, भय आदि से उत्पान उद्वेगों से रहित है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
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अध्याय 12, श्लोक 16,
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अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥
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(अनपेक्षः शुचिः दक्षः उदासीनः गतव्यथः ।
सर्व-आरम्भ-परित्यागी यः मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥)
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भावार्थ :
जो किसी भी आकाङ्क्षा से रहित, बाहर-भीतर की शुद्धता के प्रति सजग, पक्षपात से रहित है, जिसकी व्यथाएँ विलीन हो चुकी हैं, जो कर्तृत्व ( 'मैं कर्ता हूँ' - इस ) बुद्धि से ग्रस्त नहीं है, ऐसा मेरा भक्त, मुझे प्रिय है ।
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अध्याय 12, श्लोक 17,
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥
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(यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभ-अशुभ-परित्यागी भक्तिमान् यः सः मे प्रियः ॥)
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भावार्थ :
जो न इष्ट वस्तु की प्राप्ति में हर्षित और न अनिष्ट की प्राप्ति में उद्विग्न होता है, जो न शोक करता है, न कामना, शुभ और अशुभ दोनों को समान समझता हुआ दोनों को त्याग देनेवाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।
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’सः’ / ’saḥ’ - he,
Chapter 12, shloka 14,
santuṣṭaḥ satataṃ yogī
yatātmā dṛḍhaniścayaḥ |
mayyarpitamanobuddhir-
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ ||
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(santuṣṭaḥ satatam yogī
yatātmā dṛḍḍhaniścayaḥ |
mayi-arpita-manobuddhiḥ
yaḥ me bhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
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Meaning :
Allways contented, abiding in Me moment to moment, and has firm resolve of practicing yoga. Having dedicated mind and intellect to Me, such a devotee is beloved to Me.
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Chapter 12, shloka 15,
yasmānnodvijate loko
lokānnodvijate ca yaḥ |
harṣāmarṣabhayodvegair-
mukto yaḥ sa ca me priyaḥ ||
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(yasmāt na udvijate lokaḥ
lokāt na udvijate ca yaḥ |
harṣa-amarṣa-bhaya-udvegaiḥ
muktaḥ yaḥ ca saḥ me priyaḥ ||)
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Meaning :
One who does not annoy the world, nor is annoyed by the world, who is free from Elation, anger, fear and anxiety, such a devotee is dear to Me.
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Chapter 12, shloka 16,
anapekṣaḥ śucirdakṣa
udāsīno gatavyathaḥ |
sarvārambhaparityāgī
yo madbhaktaḥ sa me priyaḥ ||
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(anapekṣaḥ śuciḥ dakṣaḥ
udāsīnaḥ gatavyathaḥ |
sarva-ārambha-parityāgī
yaḥ madbhaktaḥ saḥ me priyaḥ ||)
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Meaning :
One who expects nothing, pure and clean in life, heart and mind, careful, unattached, has overcome misery, Takes no intiative in any enterprise (since has got rid of the sense, 'I do, and actions are done by me'.), such a devotee is beloved to Me.
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Chapter 12, shloka 17,
yo na hṛṣyati na dveṣṭi
na śocati na kāṅkṣati |
śubhāśubhaparityāgī
bhaktimānyaḥ sa me priyaḥ ||
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(yo na hṛṣyati na dveṣṭi
na śocati na kāṅkṣati |
śubha-aśubha-parityāgī
bhaktimān yaḥ saḥ me priyaḥ ||)
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Meaning :
My devotee who neither rejoices when a desired result is achieved, nor is disappointed if an undesired and unfavorable one is obtained by him, is beloved to Me.
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