Friday, April 25, 2014

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (13)

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (13)
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अध्याय 13, श्लोक 3,
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥
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(तत् क्षेत्रम् यत् च यादृक् च यत् विकारी यतः च यत् ।
सः च यः यत्-प्रभावः च तत् समासेन मे श्रुणु ॥)
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भावार्थ :
वह क्षेत्र (जिसे इस अध्याय के प्रथम क्षेत्र में ’शरीर’ कहा गया है) जो कुछ है, और जैसा (उसका स्वरूप और वास्तविकता) है, वह जिसका विकार है, और जिसके, जिस (कारण) से इस विकाररूपी इस क्षेत्र (के रूप) में परिणत हुआ है, वह जो और जैसे प्रभाववाला है, उसका साररूप में  वर्णन मुझसे सुनो ।
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टिप्पणी :
श्रीमद्भग्वद्गीता के शाङ्करभाष्य में अध्याय तीन का प्रथम श्लोक इस प्रकार है :
श्रीभगवानुवाच :
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।
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(इदम् शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते ।
एतत् यः वेत्ति तम् प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तत् विदुः ॥)
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किन्तु गीता के कुछ अन्य भाष्यों में ( और शायद हस्तलिखित हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में भी) अध्याय 13 का प्रारंभ निम्न श्लोक से पाया जाता है :
अर्जुन उवाच :
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतत्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ॥
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(प्रकृतिम् पुरुषम् च एव क्षेत्रम् क्षेत्रज्ञम् एव च ।
एतत्वेत्तुम् इच्छामि ज्ञानम् ज्ञेयम् च केशव ।)
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भावार्थ :
अर्जुन बोले :
हे केशव! प्रकृति और पुरुष तथा क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के संबंध में तथा साथ ही  ज्ञान एवम् ज्ञेय के संबंध में (मुझे आपसे) जानने की इच्छा है ।
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अध्याय 13, श्लोक 23,
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य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न भूयोऽभिजायते ॥
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(यः एवम् वेत्ति पुरुषम् प्रकृतिम् च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानः अपि न सः भूयः अभिजायते ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष को और प्रकृति को उसके गुणों के साथ इस प्रकार से जान लेता है, सब प्रकार से सारे व्यवहार करते हुए भी वह पुनः फिर जन्म नहीं लेता ।
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अध्याय 13, श्लोक 27,
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति पश्यति ॥)
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(समम् सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तम् परमेश्वरम् ।
विनश्यत्सु अविनश्यन्तम् यः पश्यति सः पश्यति ।)
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भावार्थ :
नाश को प्राप्त होते रहनेवाले सब चर अचर भूतों में अविनाशी समभाव से, समान रूप से विद्यमान परमेश्वर को जो देखता है, वही (सत्य को) देखता है ।
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अध्याय 13, श्लोक 29,
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं पश्यति ॥
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(प्रकृत्या एव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथा आत्मानम् अकर्तारम् सः पश्यति ॥)
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भावार्थ :
समस्त कर्म प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हैं , तथा आत्मा / अपने-आप के अकर्ता होने के सत्य को जो देखता है, वही (सत्य को) देखता है ।
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Chapter 13, shloka 3,

tatkṣetraṃ yacca yādṛkca
yadvikāri yataśca yat |
sa ca yo yatprabhāvaśca
tatsamāsena me śṛṇu ||
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(tat kṣetram yat ca yādṛk ca
yat vikārī yataḥ ca yat |
saḥ ca yaḥ yat-prabhāvaḥ ca
tat samāsena me śruṇu ||)
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Meaning : Now listen from Me in short about; What is the form and nature of that dwelling place where the 'Self' lives / abides in, what kind is that place in essence and how, why and to what extent it transforms / mutates, and what affects and causes this transformation.

Note : 1.In the starting shloka of this chapter, Lord śrīkṛṣṇa tells arjuna that this body is kṣetra, and the one that knows this kṣetra, is called the kṣetrajña -one who knows. The simple dictionary meaning of this word kṣetra, is : 'dwelling-place'. Though another word for  kṣetra , as is used by the most scholars is 'field'.
2. The Chapter 13 of  śāṅkara-bhāṣya of  begins with the shloka :

श्रीभगवानुवाच :
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।
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(इदम् शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते ।
एतत् यः वेत्ति तम् प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तत् विदुः ॥)
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We also find some traditions where they have the following shloka:

arjuna uvāca :

prakṛtiṃ puruṣaṃ caiva
kṣetraṃ kṣetrajñameva ca |
etatveditumicchāmi
jñānaṃ jñeyaṃ ca keśava ||
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(prakṛtim puruṣam ca eva
kṣetram kṣetrajñam eva ca |
etatvettum icchāmi
jñānam jñeyam ca keśava |)
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as the first shloka of this chapter 13 of śrīmadbhagvadgītā.
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Meaning :
arjuna said :  O keśava! I want to know (from you) about the prakṛti and the puruṣa, kṣetra,  kṣetrajña  and also about jñāna and the jñeya. Let us refresh our understanding of these terms :
prakṛti .. According to The sāṅkhya, prakṛti is the principle that is inert, object of knowledge.
puruṣa .. is the consciousness principle that is the evidence of itself and of the prakṛti .
kṣetra,  .. is the 'known'.
kṣetrajña.. is the one consciousness principle, the entity that 'knows.'
jñāna.. is the Intelligence inherent in the puruṣa. Alternatively, this word jñāna is also used in the sense of knowledge / information that is basically different from Intelligence.
jñeya.. The object we know about.
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Chapter 13, shloka 23,
ya evaṃ vetti puruṣaṃ
prakṛtiṃ ca guṇaiḥ saha |
sarvathā vartamāno:'pi
na sa bhūyo:'bhijāyate ||
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(yaḥ evam vetti puruṣam
prakṛtim ca guṇaiḥ saha |
sarvathā vartamānaḥ api
na saḥ bhūyaḥ abhijāyate ||)
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Meaning :
One who knows puruṣa, the prakṛti, and its 3 guṇas (attributes) though engaged outwardly in the worldy matters has no next birth.

Chapter 13, shloka 27,
samaṃ sarveṣu bhūteṣu
tiṣṭhantaṃ parameśvaram |
vinaśyatsvavinaśyantaṃ
yaḥ paśyati sa paśyati ||)
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(samam sarveṣu bhūteṣu
tiṣṭhantam parameśvaram |
vinaśyatsu avinaśyantam
yaḥ paśyati saḥ paśyati |)
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Meaning :
One who is aware that the Lord Imperishable as consciousness is always present there, in all beings that are born and subsequently die, is one who really observes the truth.

Chapter 13, shloka 29,
prakṛtyaiva ca karmāṇi
kriyamāṇāni sarvaśaḥ |
yaḥ paśyati tathātmāna-
makartāraṃ sa paśyati ||
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(prakṛtyā eva ca karmāṇi
kriyamāṇāni sarvaśaḥ |
yaḥ paśyati tathātmānam
akartāram saḥ paśyati ||)
--
Meaning :
All the actions are always performed by the prakṛti only (by means of the 3 guṇa-s /attributes). And the one who observes that 'I' ( the Self ) take no part in any action really sees.
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