आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (10)
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’सः’ / ’saḥ’ - वह,
अध्याय 10, श्लोक 3,
यो मामजननादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
--
(यः माम् अजम् अनादिम् च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः सः मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥)
--
भावार्थ :
जो मुझको (अर्थात् आत्मा के स्वरूप को) अजन्मा, अनादि और जगत् के परमेश्वर की तरह से जानता है, वह प्रज्ञावान् पुरुष मृत्युलोक में होनेवाले समस्त पापों से छूट जाता है ।
--
अध्याय 10, श्लोक 7,
--
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
--
(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
--
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
--
’सः’ / ’saḥ’ - He,
Chapter 10, shloka 3,
yo māmajananādiṃ ca
vetti lokamaheśvaram |
asammūḍhaḥ sa martyeṣu
sarvapāpaiḥ pramucyate ||
--
(yaḥ mām ajam anādim ca
vetti lokamaheśvaram |
asammūḍhaḥ saḥ martyeṣu
sarvapāpaiḥ pramucyate ||)
--
One who knows I AM birth-less, beginning-less Lord Supreme of all beings and their respective Loka, such a wise man of pure understanding is released from all sins that mortals tend to commit.
--
Chapter 10, shloka 7,
--
etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
--
(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
--
One who realizes the Essence of My Divine forms ( vibhūti ) and the Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya ) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( acala bhakti ) towards Me.
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’सः’ / ’saḥ’ - वह,
अध्याय 10, श्लोक 3,
यो मामजननादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
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(यः माम् अजम् अनादिम् च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः सः मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥)
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भावार्थ :
जो मुझको (अर्थात् आत्मा के स्वरूप को) अजन्मा, अनादि और जगत् के परमेश्वर की तरह से जानता है, वह प्रज्ञावान् पुरुष मृत्युलोक में होनेवाले समस्त पापों से छूट जाता है ।
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अध्याय 10, श्लोक 7,
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एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
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(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
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जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
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’सः’ / ’saḥ’ - He,
Chapter 10, shloka 3,
yo māmajananādiṃ ca
vetti lokamaheśvaram |
asammūḍhaḥ sa martyeṣu
sarvapāpaiḥ pramucyate ||
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(yaḥ mām ajam anādim ca
vetti lokamaheśvaram |
asammūḍhaḥ saḥ martyeṣu
sarvapāpaiḥ pramucyate ||)
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One who knows I AM birth-less, beginning-less Lord Supreme of all beings and their respective Loka, such a wise man of pure understanding is released from all sins that mortals tend to commit.
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Chapter 10, shloka 7,
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etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
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(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
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One who realizes the Essence of My Divine forms ( vibhūti ) and the Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya ) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( acala bhakti ) towards Me.
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