Wednesday, April 2, 2014

आज का श्लोक, ’सुखम्’ / 'sukhaM' -3.

आज का श्लोक, ’सुखम्’ / 'sukhaM' -3. 
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - सुख, आनन्द,

अध्याय 6, श्लोक 32,
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
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(अत्मौपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति यः अर्जुन ।
सुखम् वा यदि वा दुःखम् सः योगी परमः मतः ॥
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भावार्थ :
हे अर्जुन! सुख हो अथवा दुःख, अपने लिए हो या दूसरों के लिए, जो योगी उन्हें समभाव से देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ कहा जाता है ।
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अध्याय 10, श्लोक 4,

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
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(बुद्धिः ज्ञानम् असम्मोहः क्षमा सत्यम् दमः शमः ।
सुखम् दुःखम् भवो अभावो भयं च अभयम् एव च ॥
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भावार्थ :
बुद्धि,  विवेकयुक्त ज्ञान अर्थात् यथार्थ और अयथार्थ, नित्य और अनित्य की समझ, असम्मोह अर्थात् त्रुटिपूर्ण प्रतीतियों से अभिभूत न होना, क्षमा, सत्य और दम तथा शम अर्थात् मन-इन्द्रियों आदि पर नियन्त्रण रखते हुए उन्हें शान्त रखना, सुख और दुःख, उत्पत्ति तथा अवसान, भय तथा निर्भयता, ... 
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अध्याय 13, श्लोक 6,

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥
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(इच्छा द्वेषः सुखम् दुःखम् सङ्घातः चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम् उदाहृतम् ॥
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भावार्थ :
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, पञ्चतत्वों के सङ्घात (जोड़) से बना शरीर, चेतनता (अपने-आपके स्वरूपतः चेतन होने का स्वाभाविक ज्ञान) और धृति - धारणा-शक्ति तथा उसकी गुणवत्ता / बाहर से प्राप्त होनेवाले ज्ञान का आकलन करने की विशिष्ट क्षमता,   (पिछले श्लोक 5 में वर्णित, ’क्षेत्र’ के) विकारों को इस प्रकार से यहाँ सार-रूप में उदाहरण सहित स्पष्ट किया गया है ।
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अध्याय 16, श्लोक 23,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
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(यः शास्त्रविधिम्-उत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिम्-अवाप्नोति न सुखम् न पराम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
जो मनुष्य शास्त्रसम्मत (वेदविहित) तरीके को त्यागकर अपनी इच्छा से प्रेरित हुआ मनमाना आचरण करता है उसे ध्येय-प्राप्ति नहीं होती, उसे न ही सुख प्राप्त होता है और न परम गति ।
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’सुखम्’ / 'sukhaM' - bliss, happiness, (real or apparently so),

Chapter 6, shloka 32,

Atmaupamyena sarvatra
samaM pashyati yo'rjuna |
sukhaM vA yadi vA duHkhaM
sa yogI paramo mataH ||
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Meaning :
One who sees the same 'Self' in oneself and everywhere (and all other beings as well) and shares the pains and pleasures of all as his own is a yogI exalted indeed, O arjuna!
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Chapter 10, shloka 4,

buddhirjnAnamasammohaH
kShamA satyaM damaH shamaH |
sukhaM duHkhaM bhavo'bhAvo
bhayaM chAbhayameva cha ||
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Meaning :
Intellect (thought), wisdom, delusion, forgiveness, truth, self-restraint and tranquility, happiness, misery, birth, death fear and fearlessness, ...

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Chapter 13, shloka 6,

ichchhA dveShaH sukhaM duHkhaM
sanghAtashchetanA dhRtiH |
etatkShetraM samAsena
savikAramudAhRtaM ||
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Meaning :
Desire, repulsion, happiness, sorrow, the physical body that is a caused by the combination of 5 elements, consciousness and the resolve, all this is the brief description of the modifications (vikAra) of the kShetra (as explained in the earlier shloka  5th of this chapter 10). 
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Chapter 16, shloka 23,
yaH shAstravidhimutsRjya
vartate kAmakArataH |
na sa siddhimavApnoti
na sukhaM na parA gatiM ||
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Meaning :
One who ignores scriptural injuctions and acts motivated by desire, does not attain perfection, nor happiness and the goal of the supreme spiritual goal.
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