Monday, April 28, 2014

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (7)

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (7)
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अध्याय 7, श्लोक 17,

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं च मम प्रियः ॥
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(तेषम् ज्ञानी नित्ययुक्तः एकभक्तिः विशिष्यते ।
प्रियः हि ज्ञानिनः अत्यर्थम् अहम् सः च मम प्रियः ॥
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भावार्थ :
(मुझे भजनेवाले चार प्रकार के उपरोक्त श्लोक (16) में वर्णित भक्तों में से,) मुझमें एकनिष्ठ भक्ति रखनेवाला मुझमें नित्य निमग्न ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ है, क्योंकि जैसा वह मुझे प्रिय है, मैं भी उसे स्वरूपतः वैसा ही प्रिय हूँ । अगले श्लोक (18) में इसे और स्पष्ट किया गया है ।

अध्याय 7, श्लोक 18,
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
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(उदाराः सर्वे एव एते ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतम् ।
आस्थितः सः हि युक्तात्मा माम् एव अनुत्तमाम् गतिम् ॥)
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भावार्थ :
ये सभी विशाल-हृदय  हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा ही स्वरूप होता है, ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह मन-बुद्धिसहित मुझमें समाहित हुआ अति उत्तम स्थिति, परम गति में प्रतिष्ठित होता है ।
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अध्याय 7, श्लोक 19,

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति महात्मा सुदुर्लभः ॥
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(बहूनाम् जन्मनाम्-अन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वम्-इति सः महात्मा सुदुर्लभः ॥)
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भावार्थ :
बहुत से जन्मों (और पुनर्जन्मों) के बाद, अन्त के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ मनुष्य मेरी ओर आकर्षित होता है, मुझे भजता है । ऐसा वह मनुष्य, जिसकी दृष्टि में सब कुछ केवल वासुदेव ही होता है, वह महात्मा अत्यन्त ही दुर्लभ होता है ।
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अध्याय 7, श्लोक 22,

तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥
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(सः तया श्रद्धया युक्तः तस्य आराधनम् ईहते ।
लभते च ततः कामान् मया एव विहितान् हि तान् ॥)
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भावार्थ :
(जो भक्त कामनाओं से मोहित बुद्धि के कारण अन्य देवताओं की शरण में जाता है ... - श्लोक 20, 21,) वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता की आराधना करता है तथा उस देवता से मेरे ही द्वारा किए गए विधान से, वह उन इच्छित भोगों को अवश्य ही प्राप्त कर लेता है ॥
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Chapter 7, shloka 17,

teṣāṃ jñānī nityayukta
ekabhaktirviśiṣyate |
priyo hi jñānino:'tyartham
ahaṃ sa ca mama priyaḥ ||
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(teṣam jñānī nityayuktaḥ
ekabhaktiḥ viśiṣyate |
priyaḥ hi jñāninaḥ atyartham
aham saḥ ca mama priyaḥ ||
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Meaning :
(Of those for kinds of devotees, as described in the earlier shloka 16,) The  jñānī, the Realized in Me ever abides in Me, because being aware of Me in Essence. He is very dear to Me and I AM to Him, as is Self / Me only.

Chapter 7, shloka 18,

udārāḥ sarva evaite jñānī
tvātmaiva me matam |
āsthitaḥ sa hi yuktātmā
māmevānuttamāṃ gatim ||
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(udārāḥ sarve eva ete
 jñānī tu ātmā eva me matam |
āsthitaḥ saḥ hi yuktātmā
mām eva anuttamām gatim ||)
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Meaning :
Though all these 4 kinds of devotees are kind of broad- heart,  jñānī  is verily the Self only, according to Me. Ever in communion with Me, He always shares The Supreme State I AM.


Chapter 7, shloka 19,
bahūnāṃ janmanāmante
jñānavānmāṃ prapadyate |
vāsudevaḥ sarvamiti
sa mahātmā sudurlabhaḥ ||
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(bahūnām janmanām-ante
jñānavān mām prapadyate |
vāsudevaḥ sarvam-iti
saḥ mahātmā sudurlabhaḥ ||)
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After many births (and rebirths) in the last birth, the jñānī (Man who has attained the wisdom and Me as well) realizes Me as vāsudeva, The Consciousness Supreme, who abides ever in the hearts of all beings.
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Chapter 7, shloka 22,
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sa tayā śraddhayā yuktas-
tasyārādhanamīhate |
labhate ca tataḥ kāmān-
mayaiva vihitānhi tān ||
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(saḥ tayā śraddhayā yuktaḥ
tasya ārādhanam īhate |
labhate ca tataḥ kāmān
mayā eva vihitān hi tān ||)
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Meaning :
(Those who desire their wishes granted, ...See shloka 20, 21,)) though people worship other deities through them, I alone fulfill them and they seem to have acquired those gifts from them.


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