Wednesday, April 30, 2014

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (2)

आज का श्लोक, ’सः’ / ’saḥ’ (2)
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’सः’ / ’saḥ’ - वह,

अध्याय 2, श्लोक 15,

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
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(यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम् पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखम् धीरम् सः अमृतत्वाय कल्पते ॥)
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भावार्थ :
हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जिस मनुष्य को (इन्द्रियाँ और विषयों से उनका संयोग) ये दोनों  व्याकुल नहीं कर पाते, जो सुख और दुःख का सामना समान धैर्य के साथ कर लेता है, वह अवश्य ही अमृतत्व की प्राप्ति का भागी होता है ।
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अध्याय 2, श्लोक 21,

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययं ।
कथं पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कं ॥
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(वेद अविनाशिनम् नित्यम् यः एनम् अजम् अव्ययम् ।
कथम् सः पुरुषः पार्थ कम् घातयति हन्ति कम् ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष इस अविनाशी, अजन्मा आत्मा को अनश्वर जानता है, हे पृथापुत्र(अर्जुन)! वह किसे मार सकता है और उसके लिए किसे किसी के माध्यम से मारा जाना भी संभव है?
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अध्याय 2, श्लोक 70,

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
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(आपूर्यमाणम्-अचलप्रतिष्ठम्
समुद्रम् आपः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामाः यम् प्रविशन्ति सर्वे
सः शान्तिम् आप्नोति न कामकामी ॥)
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भावार्थ :
जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल और अपने-आप में सुस्थिर समुद्र में भिन्न भिन्न स्रोतों से आनेवाली सारी नदियाँ समा जाती हैं और वह यथावत् अविचलित ही रहता है, उसी प्रकार विभिन्न कामनाएँ जिस मनुष्य को (उसकी आत्मा से) बाहर न खींचती हुई, उसमें ही समाहित हो जाती हैं, वही मनुष्य शान्ति प्राप्त कर लेता है, न कि वह जिसका चित्त विभिन्न कामनाओं से आकर्षित हुआ इधर उधर भटकता रहता है ।
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अध्याय 2, श्लोक 71,

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः शान्तिमधिगच्छति ॥
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(विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति निःस्पृहः ।
निर्ममः निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
और, जो पुरुष कामनाओं को त्यागकर, ममत्व से रहित, अहंकार से रहित, स्पृहा (अर्थात् ईर्ष्या / लालसा) से भी रहित हुआ आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है ।
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’सः’ / ’saḥ’ - He,

Chapter 2, shloka 15,

yaṃ hi na vyathayantyete
puruṣaṃ puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukhaṃ dhīra
so:'mṛtatvāya kalpate ||
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(yam hi na vyathayanti ete
puruṣam puruṣarṣabha |
samaduḥkhasukham dhīram
saḥ amṛtatvāya kalpate ||)
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Meaning : O noble among the men, One who is not tormented by these two (the contact of the senses with their specific objects), who is unmoved when coming across pleasures and pains caused by them, sure wins the state of immortality /liberation.
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Chapter 2, shloka 21,

vedāvināśinaṃ nityaṃ
ya enamajamavyayaṃ |
kathaṃ sa puruṣaḥ pārtha
kaṃ ghātayati hanti kaṃ ||
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(veda avināśinam nityam
yaḥ enam ajam avyayam |
katham saḥ puruṣaḥ pārtha
kam ghātayati hanti kam ||)
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Meaning :
How can one who knows, this (Self) is imperishable, eternal, never born, and immutable, he himself kill or get some-one killed by another?  

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Chapter 2, shloka 70,

āpūryamāṇamacalapratiṣṭhaṃ
samudramāpaḥ praviśanti yadvat |
tadvatkāmā yaṃ praviśanti sarve
sa śāntimāpnoti na kāmakāmī ||
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(āpūryamāṇam-acalapratiṣṭham
samudram āpaḥ praviśanti yadvat |
tadvat kāmāḥ yam praviśanti sarve
saḥ śāntim āpnoti na kāmakāmī ||)
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Meaning : Just as, the waters coming from all the directions enter and merge into the ocean, and the ocean stays steady and unaffected, quite so, only the one who is not affected by the desires that come to and merge into his mind wins the state of peace. And not the one, who keeps thinking of and indulging in desires.

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Chapter 2, shloka 71,

vihāya kāmānyaḥ sarvān-
pumāṃścarati niḥspṛhaḥ |
nirmamo nirahaṅkāraḥ
sa śāntimadhigacchati ||
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(vihāya kāmān yaḥ sarvān
pumān carati niḥspṛhaḥ |
nirmamaḥ nirahaṅkāraḥ
saḥ śāntim adhigacchati ||)
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Meaning :
One who has forsaken all desire, and lives peacefully contented thus, having no attachment nor ego, abides ever in bliss supreme.

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