गीता : प्रयोजन की शिक्षा
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भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।।
विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।१।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।२।।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।।
भक्तो मेऽसि सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।३।।
(ज्ञान-कर्म-सन्न्यास-योग, अध्याय ४)
इससे पूर्व अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग की शिक्षा दी थी । इसी अध्याय के अन्तर्गत भगवान् श्रीकृष्ण ने मनुष्य में विद्यमान उस स्वाभाविक निष्ठा का वर्णन किया, जिसे साङ्ख्य-योग के सन्दर्भ में ज्ञान तथा कर्म-योग के सन्दर्भ में कर्म कहा जाता है।
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।
और इससे भी पहले अध्याय २ में अर्जुन को साङ्ख्य-योग की शिक्षा दी थी।
इस प्रकार से, शिक्षा का प्रयोजन अपने भीतर उस मौलिक निष्ठा की पहचान कर लेना है, जिसके आधार पर अपने मार्ग को जान लिया जाता है।
किन्तु उस प्रयोजन की शिक्षा का प्राप्त हो जाना भी उतना ही महत्वपूर्ण और आवश्यक है।
इसी ओर संकेत करते हुए अगले अध्याय ५ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।।४।।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।५।।
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