मन, बुद्धि, चित्त, अहं(कार)
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निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।३१।।
(अध्याय १)
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।।
मयैवेते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ।।३३।।
(अध्याय ११)
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अन्तःकरण को चार लक्षणों से जाना जा सकता है :
मन, बुद्धि, चित्त और अहं(कार)
मन, अन्तःकरण की भोगबुद्धि है । अर्थात् यह बुद्धि कि मैं सुख-दुःख, पाप-पुण्य का उपभोगकर्ता हूँ ।
बुद्धि अर्थात् ऐसा ज्ञान, जो कि सत्य, असत्य, मिथ्या / दोषयुक्त, अर्थात् मोह और / या भ्रम से ग्रस्त हो सकता है ।
चित्त अर्थात् चेतना :
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।२२।।
(अध्याय १०)
चेतना के तीन तल हैं :
पहला है -- चेतन (conscious),
दूसरा है -- अवचेतन (sub-conscious),
और तीसरा है -- अचेतन (un-conscious).
अचेतन ही आत्म-अज्ञान (मूल अविद्या) अर्थात् अहं(कार) है ।
यही अचेतन पहले तो अवचेतन की तरह अभिव्यक्त होता है और फिर चेतन की तरह ।
इस अचेतन में ही, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व तथा स्वामित्व, इन चार प्रकार की बुद्धियों का उद्भव, स्थिति और लय होता है ।
इस प्रकार से अनायास ही आत्मा (अपने-आप) को ही बुद्धि में ही कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता तथा स्वामी मान लिया जाता है।
फिर आत्मा क्या है? आत्मा न तो कर्ता, न भोक्ता, न ज्ञाता और न ही स्वामी है । अन्तःकरण के ये चार लक्षण, मन की उपाधियाँ हैं। उपाधि ही वह निमित्त है, जिसके बारे में प्रारम्भ के दो श्लोकों (1/31, 11/33) में कहा है।
इस प्रकार वह सभी कुछ, जो कुछ भी होता है वह कर्म / घटना केवल दृश्य प्रतीतिमात्र है। कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता तथा स्वामी का अस्तित्व भी केवल कोरी कल्पना ही है।
आत्मा यद्यपि इस समस्त दृश्यमात्र का अधिष्ठान है, दृष्टा और दृश्य भी अन्योन्याश्रित होने से उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। इस सत्य को जान लेना ही आत्म-ज्ञान और आत्म-निष्ठा भी है।
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