रसवर्जं / rasavarjaṃ
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अध्याय 2, श्लोक 59,
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
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(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
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टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है । जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
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’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ - craving for the pleasures, longing for,
Chapter 2, śloka 59,
viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
--
(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
--
Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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अध्याय 2, श्लोक 59,
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
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(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
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भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
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टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है । जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
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’रसवर्जम्’ / ’rasavarjam’ - craving for the pleasures, longing for,
Chapter 2, śloka 59,
viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
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(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
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Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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