Sunday, February 13, 2022

नासतो विद्यते भावो

श्रीमद्भगवद्गीता :

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अध्याय २,

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।

अध्याय ४,

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।३४।।

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भगवान् श्री रमण महर्षि कृत सद्दर्शनम् :

सत्प्रत्ययाः किन्नु विहाय सन्तं ।

हद्येष चिन्तारहितं हृदाख्यः ।।

कथं स्मरामस्तममेयमेकम् ।

तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा ।।१।।

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प्रस्तुत प्रविष्टि (पोस्ट) के प्रारंभ के ३ श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता से उद्धृत किए गए हैं किन्तु यहाँ इसका उद्दिष्ट प्रयोजन, श्री रमण महर्षि-कृत सद्दर्शनम् नामक ग्रन्थ के प्रारंभ में उल्लिखित :

"सत्प्रत्ययाः"

पद की विवेचना करना है।

जिस सत् (Reality) पद को अहम्, निज, सत्य, ब्रह्म, आत्मा, अव्यय, अविनाशी, ईश्वर, इत्यादि पदों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है वह वाणी का विषय नहीं होने से उसका वर्णन करना  बहुत कठिन है। 

अतः उसके बारे में जानने और कहने के लिए एकमात्र उपलब्ध और संभव उपाय यही है, कि उस 'सत्' नामक तत्त्व के द्योतक उसके चिह्नों और लक्षणों, उसके अर्थात् उसे इंगित करने वाले उन संकेतों के माध्यम से ही उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास किया जाए। 

उसके ऐसे कौन से चिह्न, लक्षण, द्योतक संकेत हैं, जिनके द्वारा  शास्त्रों में उसे इंगित किया गया है, और जिन्हें सामान्य बुद्धि से युक्त मनुष्य भी सफलतापूर्वक ग्रहण कर अन्ततः हृदयङ्गम कर सकता है?

अथर्वशीर्ष ऐसा ही एक उपक्रम है जिसका पाठ, अध्ययन कर अल्पबुद्धियुक्त ऐसा मनुष्य जिसका चित्त निर्मल, मन परिपक्व और विवेक जागृत हो, उस तत्त्व का साक्षात्कार कर सकता है। अथर्वशीर्ष उस परमात्मा के ऐसे चिह्नों या संकेतों के माध्यम से उसकी उपासना और स्तवन करने का अनुष्ठान है ।

संक्षेप में :

त्वं, अहम् तथा तत् (एवं यह) इन तीन सर्वनामों के माध्यम से उसे ही क्रमशः गणपति, रुद्र, देवी, नारायण तथा सूर्य आदि की संज्ञा देकर उसके ही स्वरूप का वर्णन श्री गणपति-अथर्वशीर्ष, शिव-अथर्वशीर्ष, श्री देवी-अथर्वशीर्ष, नारायण-अथर्वशीर्ष तथा सूर्य-अथर्वशीर्ष के रूप में किया गया है ।

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