आज का श्लोक,
’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’
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’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’ - सम्पूर्ण, समस्त (यथोचित) कर्मों में,
अध्याय 3, श्लोक 26,
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥
--
( न बुद्धिभेदम् जनयेत् अज्ञानाम् कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥)
--
भावार्थ :
योगयुक्त (जिसकी अवस्थिति परमात्मा में रहती है) मनुष्य को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों के अनुष्ठान के प्रति आसक्त तथा आग्रहशील अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् संशय उत्पन्न न करे, बल्कि उनका विधिवत् आचरण करने के लिए ही उन्हें उत्साहित ही करे ।
--
अध्याय 4, श्लोक 37,
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
--
(यथा एधांसि समिद्धः अग्निः भस्मसात् कुरुते अर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥)
--
भावार्थ :
जिस प्रकार से प्रज्वलित हुई अग्नि ज्वलनशील पदार्थों को जलाकर भस्म कर देती है, हे अर्जुन !प्रज्वलित हुई ज्ञान रूपी अग्नि उसी प्रकार से समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 13,
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
--
(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
--
भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
--
--
अध्याय 18, श्लोक 56,
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
--
(सर्वकर्माणि अपि सदा कुर्वाणः मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतम् पदम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
मुझमें समाहित चित्त से सदैव सभी (विभिन्न) कर्मों को करते हुए भी (पिछले श्लोक 55 में वर्णित मेरा भक्त) मेरी कृपा से अविनाशी परम पद (अर्थात् मुझको ) पा लेता है ।
--
टिप्पणी :
अध्याय 18, श्लोक 55,
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
--
(भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्त्वतः।
ततः माम् तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।)
--
भावार्थ :
मुझमें भक्ति होने से वह (मेरा भक्त) भली-भाँति जान जाता है, कि तत्त्वतः मेरा स्वरूप क्या और कितना (असीम, अखण्ड, अनिर्वचनीय) है, जो कि तत्त्वतः हूँ । इसके बाद मुझको तत्वतः जानकर मुझमें प्रविष्ट हो जाता है, मुझसे एकत्व को प्राप्त हो जाता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 57,
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
--
(चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्तः सततम् भव ॥)
--
भावार्थ :
निष्ठा और भावना सहित सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मेरे परायण (मेरे में संलग्न) होकर, सांख्य-बुद्धि से प्राप्त विवेक द्वारा, मुझ पर ही आश्रित रहकर, निरन्तर मेरे ही प्रति लगावयुक्त चित्तवाले हो जाओ ।
--
’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’ - one established firmly in the Self.
Chapter 3, śloka 26,
na buddhibhedaṃ janayed-
ajñānāṃ karmasaṅginām |
joṣayetsarvakarmāṇi
vidvānyuktaḥ samācaran ||
--
( na buddhibhedam janayet
ajñānām karmasaṅginām |
joṣayet sarvakarmāṇi
vidvān yuktaḥ samācaran ||)
--
Meaning :
One who has realized and is firmly established in the Self, should not cause suspicion / doubts, -in the minds of those who are ignorant (of Self), -about the significance of performing the various rituals as are mentioned in the scriptures. Instead, He should encourage them to perform those rituals with due procedures accordingly as are laid down in the scriptures.
--
Chapter 4, śloka 37,
yathaidhāṃsi samiddho:'gnir-
bhasmasātkurute:'rjuna |
jñānāgniḥ sarvakarmāṇi
bhasmasātkurute tathā ||
--
(yathā edhāṃsi samiddhaḥ agniḥ
bhasmasāt kurute arjuna |
jñānāgniḥ sarvakarmāṇi
bhasmasāt kurute tathā ||)
--
Meaning :
arjuna! Like the blazing fire burns down the fuels to ashes, The fire of wisdom burns down the bundle of all action to ashes.
--
Chapter 5, śloka 13
sarvakarmāṇi manasā
sannyasyāstē sukhaṁ vaśī |
navadvārē purē dēhī
naiva kurvanna kārayan ||
--
(sarvakarmāṇi manasā
sannyasya āstē sukham vaśī |
navadvārē purē dēhī
na- ēva kurvan na kārayan ||)
--
Meaning :
The consciouseness (self) that lives in the body as its abode, with nine doors (2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, a mouth and 2 organs of excretion), when by way of discrimination and self-enquiry, gets rid of the false notion 'I do / I don't do', and thus neither doing, nor getting done anything by some other agent of action, is freed from all actions, rests peacefully and happily there-after for ever.
--
Chapter 18, śloka 56,
sarvakarmāṇyapi sadā
kurvāṇo madvyapāśrayaḥ
matprasādādavāpnoti
śāśvataṃ padamavyayam ||
--
(sarvakarmāṇi api sadā
kurvāṇaḥ madvyapāśrayaḥ |
matprasādāt avāpnoti
śāśvatam padam avyayam ||)
--
Meaning :
With mind dedicated to Me, performing all actions (that fall to his lot according to destiny) with dispassion, (My devotee, as described in the earlier śloka 55 of this Chapter 18) by My Grace attains the Supreme Imperishable State (That is Me only).
--
Note :
Chapter 18, śloka 55,
bhaktyā māmabhijānāti
yāvānyaścāsmi tatvataḥ |
tato māṃ tattvato jñātvā
viśate tadanantaram ||
--
(bhaktyā mām abhijānāti
yāvān yaḥ ca asmi tattvataḥ|
tataḥ mām tattvataḥ jñātvā
viśate tadanantaram |)
--
Meaning :
With devotion (My devotee) knows well My extent (Formless, Indivisible, Indescribable) , What and How I AM, And having realized My Reality, enters Me and merges into Me.
--
Chapter 18, śloka 57,
cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogamupāśritya
maccittaḥ satataṃ bhava ||
--
(cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogam upāśritya
maccittaḥ satatam bhava ||)
--
Meaning :
Having surrendered all your actions to Me, having devoted to Me, following Me, by means of the wisdom of sāṃkhya,(sāṃkhya-buddhi), constantly thinking of Me, ever be absorbed in Me, One in Me .
--
’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’
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’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’ - सम्पूर्ण, समस्त (यथोचित) कर्मों में,
अध्याय 3, श्लोक 26,
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥
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( न बुद्धिभेदम् जनयेत् अज्ञानाम् कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥)
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भावार्थ :
योगयुक्त (जिसकी अवस्थिति परमात्मा में रहती है) मनुष्य को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों के अनुष्ठान के प्रति आसक्त तथा आग्रहशील अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् संशय उत्पन्न न करे, बल्कि उनका विधिवत् आचरण करने के लिए ही उन्हें उत्साहित ही करे ।
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अध्याय 4, श्लोक 37,
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
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(यथा एधांसि समिद्धः अग्निः भस्मसात् कुरुते अर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥)
--
भावार्थ :
जिस प्रकार से प्रज्वलित हुई अग्नि ज्वलनशील पदार्थों को जलाकर भस्म कर देती है, हे अर्जुन !प्रज्वलित हुई ज्ञान रूपी अग्नि उसी प्रकार से समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है ।
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अध्याय 5, श्लोक 13,
सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
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(सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्य आस्ते सुखम् वशी ।
नवद्वारे पुरे देही न- एव कुर्वन् न कारयन् ॥)
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भावार्थ :
नव-द्वारों (इन्द्रियों) वाले घर (पुर) में रहता हुआ (पुरुष) और अपने मन-बुद्धि को वश में कर लेनेवाला, मन की सहायता से ( विवेकपूर्वक अपनी कर्तृत्व-भावना का निरसन हो जाने से) कर्मों को न तो स्वयं करते हुए और न किसी और के माध्यम से करवाते हुए सुखपूर्वक अपनी आत्मा में स्थित हो जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 56,
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
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(सर्वकर्माणि अपि सदा कुर्वाणः मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतम् पदम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
मुझमें समाहित चित्त से सदैव सभी (विभिन्न) कर्मों को करते हुए भी (पिछले श्लोक 55 में वर्णित मेरा भक्त) मेरी कृपा से अविनाशी परम पद (अर्थात् मुझको ) पा लेता है ।
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टिप्पणी :
अध्याय 18, श्लोक 55,
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
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(भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्त्वतः।
ततः माम् तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।)
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भावार्थ :
मुझमें भक्ति होने से वह (मेरा भक्त) भली-भाँति जान जाता है, कि तत्त्वतः मेरा स्वरूप क्या और कितना (असीम, अखण्ड, अनिर्वचनीय) है, जो कि तत्त्वतः हूँ । इसके बाद मुझको तत्वतः जानकर मुझमें प्रविष्ट हो जाता है, मुझसे एकत्व को प्राप्त हो जाता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 57,
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
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(चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्तः सततम् भव ॥)
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भावार्थ :
निष्ठा और भावना सहित सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मेरे परायण (मेरे में संलग्न) होकर, सांख्य-बुद्धि से प्राप्त विवेक द्वारा, मुझ पर ही आश्रित रहकर, निरन्तर मेरे ही प्रति लगावयुक्त चित्तवाले हो जाओ ।
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’सर्वकर्माणि’ / ’sarvakarmāṇi’ - one established firmly in the Self.
Chapter 3, śloka 26,
na buddhibhedaṃ janayed-
ajñānāṃ karmasaṅginām |
joṣayetsarvakarmāṇi
vidvānyuktaḥ samācaran ||
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( na buddhibhedam janayet
ajñānām karmasaṅginām |
joṣayet sarvakarmāṇi
vidvān yuktaḥ samācaran ||)
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Meaning :
One who has realized and is firmly established in the Self, should not cause suspicion / doubts, -in the minds of those who are ignorant (of Self), -about the significance of performing the various rituals as are mentioned in the scriptures. Instead, He should encourage them to perform those rituals with due procedures accordingly as are laid down in the scriptures.
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Chapter 4, śloka 37,
yathaidhāṃsi samiddho:'gnir-
bhasmasātkurute:'rjuna |
jñānāgniḥ sarvakarmāṇi
bhasmasātkurute tathā ||
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(yathā edhāṃsi samiddhaḥ agniḥ
bhasmasāt kurute arjuna |
jñānāgniḥ sarvakarmāṇi
bhasmasāt kurute tathā ||)
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Meaning :
arjuna! Like the blazing fire burns down the fuels to ashes, The fire of wisdom burns down the bundle of all action to ashes.
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Chapter 5, śloka 13
sarvakarmāṇi manasā
sannyasyāstē sukhaṁ vaśī |
navadvārē purē dēhī
naiva kurvanna kārayan ||
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(sarvakarmāṇi manasā
sannyasya āstē sukham vaśī |
navadvārē purē dēhī
na- ēva kurvan na kārayan ||)
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Meaning :
The consciouseness (self) that lives in the body as its abode, with nine doors (2 eyes, 2 ears, 2 nostrils, a mouth and 2 organs of excretion), when by way of discrimination and self-enquiry, gets rid of the false notion 'I do / I don't do', and thus neither doing, nor getting done anything by some other agent of action, is freed from all actions, rests peacefully and happily there-after for ever.
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Chapter 18, śloka 56,
sarvakarmāṇyapi sadā
kurvāṇo madvyapāśrayaḥ
matprasādādavāpnoti
śāśvataṃ padamavyayam ||
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(sarvakarmāṇi api sadā
kurvāṇaḥ madvyapāśrayaḥ |
matprasādāt avāpnoti
śāśvatam padam avyayam ||)
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Meaning :
With mind dedicated to Me, performing all actions (that fall to his lot according to destiny) with dispassion, (My devotee, as described in the earlier śloka 55 of this Chapter 18) by My Grace attains the Supreme Imperishable State (That is Me only).
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Note :
Chapter 18, śloka 55,
bhaktyā māmabhijānāti
yāvānyaścāsmi tatvataḥ |
tato māṃ tattvato jñātvā
viśate tadanantaram ||
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(bhaktyā mām abhijānāti
yāvān yaḥ ca asmi tattvataḥ|
tataḥ mām tattvataḥ jñātvā
viśate tadanantaram |)
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Meaning :
With devotion (My devotee) knows well My extent (Formless, Indivisible, Indescribable) , What and How I AM, And having realized My Reality, enters Me and merges into Me.
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Chapter 18, śloka 57,
cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogamupāśritya
maccittaḥ satataṃ bhava ||
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(cetasā sarvakarmāṇi
mayi sannyasya matparaḥ |
buddhiyogam upāśritya
maccittaḥ satatam bhava ||)
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Meaning :
Having surrendered all your actions to Me, having devoted to Me, following Me, by means of the wisdom of sāṃkhya,(sāṃkhya-buddhi), constantly thinking of Me, ever be absorbed in Me, One in Me .
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