Thursday, August 28, 2014

आज का श्लोक, ’विद्वान्’ / ’vidvān’

आज का श्लोक, ’विद्वान्’ / ’vidvān’
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’विद्वान्’ / ’vidvān’ -  आत्म-ज्ञानी,

अध्याय 3, श्लोक 25,

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥
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(सक्ताः कर्मणि अविद्वांसः यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्यात् विद्वान् तथा असक्तः चिकीर्षुः लोकसङ्ग्रहम् ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! अज्ञानीजन जिस प्रकार से आसक्ति रखते हुए (आसक्ति होने के कारण) कर्म किया करते हैं, विद्वान् (ज्ञानी) को भी उसी प्रकार से, किन्तु आसक्तिरहित होकर, केवल लोक-सङ्ग्रह (लोक-कल्याण हेतु उदाहरण के माध्यम से शिक्षा देने के लिए)  कर्म करना चाहिए ।
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अध्याय 3, श्लोक 26,

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥
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( न बुद्धिभेदम् जनयेत् अज्ञानाम् कर्मसङ्गिनाम् ।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥)
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भावार्थ :
योगयुक्त (जिसकी अवस्थिति परमात्मा में रहती है) मनुष्य को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों के अनुष्ठान के प्रति आसक्त तथा आग्रहशील अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् संशय उत्पन्न न करे, बल्कि उनका विधिवत् आचरण करने के लिए ही उन्हें उत्साहित ही करे । 
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’विद्वान्’ / ’vidvān’ - The learned, The Realized one,

Chapter 3, śloka 25,

saktāḥ karmaṇyavidvāṃso 
yathā kurvanti bhārata |
kuryādvidvāṃstathāsaktaś-
cikīrṣurlokasaṅgraham ||
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(saktāḥ karmaṇi avidvāṃsaḥ 
yathā kurvanti bhārata |
kuryāt vidvān tathā asaktaḥ 
cikīrṣuḥ lokasaṅgraham ||)
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Meaning :
O bhārata (arjuna)!  With a view for the benefit of the whole world and cite an example to teach, One who is though well aware of the Reality (That all action is done by the mutual interaction of the three attributes / guṇa-s of prakṛti only, and Self is never affected, nor participates in any way. and so is unattached from the action) should take part in all actions in the same way as those who are ignorant and prompted by desires and fears engage themselves in various actions. 
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Chapter 3, śloka 26,

na buddhibhedaṃ janayed-
ajñānāṃ karmasaṅginām |
joṣayetsarvakarmāṇi 
vidvānyuktaḥ samācaran ||
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(na buddhibhedam janayet 
ajñānām karmasaṅginām |
joṣayet sarvakarmāṇi 
vidvān yuktaḥ samācaran ||)
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Meaning :
One who has realized and is firmly established in the Self, should not cause suspicion / doubts, -in the minds of those who are ignorant (of Self), -about the significance of performing the various rituals as are mentioned in the scriptures. Instead, He should encourage them to perform those rituals accordingly as are laid down in the scriptures, with due procedures .
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