आज का श्लोक, ’विदुः’ / ’viduḥ’
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’विदुः’ / ’viduḥ’ - जाना, प्राप्त किया, जानते हैं (’विद्’ अन्य पुरुष, वर्तमान काल, लट्, बहुवचन),
अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
--
(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगो नष्टः परंतपः ॥)
--
भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
--
अध्याय 7, श्लोक 29,
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
--
(जरामरणमोक्षाय माम् आश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तत् विदुः कृत्स्नम् अध्यात्मम् कर्म च अखिलम् ॥)
--
भावार्थ :
जरा (वृद्धावस्था, या शरीर का जीर्ण-शीर्ण होना) तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए जो मुझ पर आश्रित होकर मेरी प्राप्ति के लिए यत्नशील हैं, वे उस ब्रह्म को जान लेते हैं, तथा सम्पूर्ण अध्यात्म एवं सम्पूर्ण कर्म के तत्व को भी (जान लेते हैं) ।
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अध्याय 7, श्लोक 30,
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥
--
(साधिभूताधिदैवम् माम् साधियज्ञम् च ये विदुः ।
प्रयाणकाले अपि च माम् ते विदुः युक्तचेतसः ॥)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवसहित मुझे / मेरे स्वरूप को अन्तकाल में भी जानते हैं, वे मुझमें समाहित चित्त हुए मुझे अवश्य ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं ।
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टिप्पणी :
1. अधिभूत, अधियज्ञ तथा अधिदैव के बारे में अध्याय 8 के श्लोक 4 में अधिक अच्छी तरह बतलाया गया है ।
2. ’विद्’ धातु को 4 अर्थों में प्रयोग किया जाता है, ’विदुः’ ’अदादिगण’ की दृष्टि से लट्-लकार प्रथम (अन्य) पुरुष बहुवचन है । अर्थ है : (वे) जानते हैं । पर्याय से विद् धातु के 4 अर्थ क्रमशः - जानना, होना, पाना, और कहना हैं । ’ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाना’ जहाँ ’जानना’ कोई ’सूचनात्मक ज्ञान’ नहीं होता । ब्रह्म स्वयं ही ज्ञानस्वरूप है, अर्थात् ’जानना’ ब्रह्म का ही यथार्थ है ।
इसलिए उपरोक्त श्लोक में 'विदुः' का तात्पर्य है परमात्मा को जानते हुए वही हो रहना ।
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अध्याय 8, श्लोक 17,
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥)
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(सहस्रयुगपर्यन्तम् अहः यत् ब्रह्मणः विदुः ।
रात्रिम् युगसहस्रानाम् ते अहो-रात्र-विदः जनाः ॥)
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भावार्थ : काल के तत्व को जानने तथा ’दिन-रात’ के परिमाण द्वारा उसकी गणना करनेवाले, चार युगों के एक हज़ार बार व्यतीत हो जाने की अवधिवाले जिस समय को ब्रह्मा का एक दिन, तथा इसी प्रकार जिस (चार युगों के एक हज़ार बार व्यतीत हो जाने की अवधि) को ही उनकी एक रात्रि का समय कहते हैं ।
(अगले श्लोक क्रमांक 18 में आगे कहा गया है, ...)
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अध्याय 10, श्लोक 2,
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहं आदिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
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(न मे विदुः सुरगणाः प्रभवम् न महर्षयः ।
अहम् आदिः हि देवानाम् महर्षीणाम् च सर्वशः ॥)
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भावार्थ :
मेरी उत्पत्ति (आविर्भाव) को न तो सुरगण (देवता) जानते हैं, और न ही कोई भी महर्षि । क्योंकि मैं ही सब प्रकार से देवताओं का तथा महर्षियों का भी आदि कारण हूँ ।
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अध्याय 10, श्लोक 14,
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥)
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(सर्वम् एतत् ऋतम् मन्ये यत् माम् वदसि केशव ।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुः देवाः न दानवाः ॥)
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भावार्थ : (अर्जुन कहते हैं :)
हे केशव आप अपने बारे में मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, उस सबको मैं सत्य मानता हूँ । भगवन! आपके प्राकट्य को, कार्य को, और यथार्थ को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव ।
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टिप्पणी : यहाँ पुनः यह जानना रोचक होगा कि जहाँ पौराणिक दृष्टि से ’ईश्वर’ के अवतार के आधार पर या वैदिक आधार पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार से भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन और कार्य को भिन्न-भिन्न रूप से कहा और ग्रहण किया जा सकता है और उनमें विसंगति हमारी परिपक्वता के अनुसार ही हमें प्रतीत होगी ।
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अध्याय 13, श्लोक 34,
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥
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(क्षेत्र-क्षेत्रयोः एवम् अन्तरम् ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृति-मोक्षं च ये विदुः यान्ति ते परम् ॥)
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भावार्थ :
(इस अध्याय के श्लोक 1 से 18 तक विस्तार से वर्णित किए गए) क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा भूतप्रकृति (गुणों का गुणों में वर्तन) से मुक्ति को जो ज्ञानदृष्टि से जान लेते हैं, वे परमार्थ को प्राप्त हो जाते हैं ।
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अध्याय 16, श्लोक 7,
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥
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(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च जनाः न विदुः आसुराः ।
न शौचम् न च आचारः न सत्यम् तेषु विद्यते ॥)
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भावार्थ :
आसुरी प्रवृत्ति की प्रबलता जिनमें होती है, वे न तो यह जानते हैं कि (विषयों में) मन की प्रवृत्ति क्यों और कैसे होती है, और न ही यह, कि (विषयों से) मन की निवृत्ति क्यों और कैसे होती है । न तो वे शुचिता / अशुचिता क्या है, इसे जानते हैं न सदाचरण, और न ही उनमें सत्य के लिए कोई महत्व-बुद्धि होती है ।
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अध्याय 18, श्लोक 2,
श्रीभगवानुवाच :
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥
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(काम्यानाम् कर्मणाम् न्यासं सन्न्यासं कवयः विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागम् प्राहुः त्यागं विचक्षणाः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
विद्वान् पुरुष कामनाओं की प्राप्ति के उद्देश्य से किए जानेवाले कर्मों का त्याग ही संन्यास है, ऐसा समझते हैं, जबकि (अन्य) विचारपूर्वक देखने-जाननेवालों के मतानुसार समस्त कर्मफल का त्याग ही वस्तुतः त्याग होता है ।
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टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में संक्षेप में संन्यास को परिभाषित किया गया है । यह जानना रोचक होगा कि इसका शाब्दिक अर्थ व्युत्पत्ति के आधार पर मुख्यतः दो प्रकार से प्राप्त होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’अस्’ धातु (’होने) के अर्थ में संयुक्त करने पर ’न्यस्’ और फिर इससे अपत्यार्थक ’न्यास’ व्युत्पन्न होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’आस्’ धातु (बैठने, स्थिर होने के अर्थ में) से ’न्यास्’ और ’न्यास’ प्राप्त होता है ।
तात्पर्य यह कि एक ओर जहाँ किसी वस्तु को उसके यथोचित स्थान पर रखना ’न्यास’ है, तो दूसरी ओर अपने स्वाभाविक स्वरूप (आत्मा) में मन को स्थिरता से रखना भी ’न्यास’ ही है । इसी को गौण अर्थ में न्यास अर्थात् अंग्रेज़ी भाषा के trust के लिए हिन्दी में प्रयुक्त किया जाता है ।
यह तो हुआ ’न्यास’ । इसके साथ ’सं’ उपसर्ग लगा देने से इसे पूर्णता प्राप्त हो जाती है और ’संन्यास’ प्राप्त हो जाता है ।
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’विदुः’ / ’viduḥ’ - knew, know (plural).
Chapter 4, śloka 2,
evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
--
(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayo viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapaḥ ||)
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Meaning :
This yoga that was transferred in succession and was / is acquired traditionally (as described in śloka1) was / is known by the king-sages (rājarṣi), And in the long passage of time, the same has become almost lost to us.
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Chapter 7, śloka 29,
jarāmaraṇamokṣāya
māmāśritya yatanti ye |
te brahma tadviduḥ kṛtsna-
madhyātmaṃ karma cākhilam ||
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(jarāmaraṇamokṣāya
mām āśritya yatanti ye |
te brahma tat viduḥ kṛtsnam
adhyātmam karma ca akhilam ||)
--
Meaning :
Those seeking liberation from aging and death (and rebirths), come to Me, and make efforts for this, they know the Reality (brahma), the essence of spirituality (adhyātma) and also the secret of the action (karma)
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Chapter 7, śloka 30,
sādhibhūtādhidaivaṃ māṃ
sādhiyajñaṃ ca ye viduḥ |
prayāṇakāle:'pi ca māṃ
te viduryuktacetasaḥ ||
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(sādhibhūtādhidaivam mām
sādhiyajñam ca ye viduḥ |
prayāṇakāle api ca mām
te viduḥ yuktacetasaḥ ||)
--
Meaning :
Through their constant remembrance of ME, those who attain ME, and see ME as the ultimate spiritual power that supports all matter and material. Those, who know ME the source of All Cosmic Intelligence, and The Lord of All sacrifices, are always in ME, They are the Wise.
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Chapter 8, śloka 17,
sahasrayugaparyantam-
aharyadbrahmaṇo viduḥ |
rātriṃ yugasahasrāntāṃ
te:'horātravido janāḥ ||)
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(sahasrayugaparyantam
ahaḥ yat brahmaṇaḥ viduḥ |
rātrim yugasahasrānām
te aho-rātra-vavidaḥ janāḥ ||)
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Meaning :
Those who know the nature and essence of Time, say that the brahma's one day and likewise one night also, each comprises of 1000 yugas. (and a yuga on the human scale of time, is again as is described in scriptures).
(... Continued in the next śloka 18 of this chapter6).
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Note : From this and the next few śloka-s, we get an interesting Hint:
We can guess about the nature of the entity that is given this name 'brahma'. And we can see The two faces of 'Time'; The 'Relative' that according to our assumption keeps on 'passing' moment to moment, getting lost every second, and at the same time, There is yet another that passes NOT. The 'Absolute', Imperishable, Immutable, Unmovable, 'Timeless-ness'.
In 'Poems and Parables' J.Krishnamurti had observed:
"Time and space but exist in mind."
We can see his difficulty while using the term 'mind'. I think by this He might have meant -'Thought'.
The 'Thought' as is used in His Literature coincides with the saṃskṛta as ’vṛtti’ / ’saṅkalpa’, which has another substitute in 'kalpanā' - imagination / thought. So 'thought' and 'time' define one-another. Both are but illusion. Their functioning presumes a ground which is unchanging, Time-less Reality. Which is NOT Insentient, But Conscious, Intelligence Principle. We can understand and grasp this much only. In paurāṇika parlance, this 'creation' is but a saṅkalpa, in 's mind (kalpana) which gives rise to 'kalpa'.
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Chapter 10, śloka 2,
na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavaṃ na maharṣayaḥ |
ahaṃ ādirhi devānāṃ
maharṣīṇāṃ ca sarvaśaḥ ||
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(na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavam na maharṣayaḥ |
aham ādiḥ hi devānām
maharṣīṇām ca sarvaśaḥ ||)
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Meaning :
Neither the various celestial beings / divine entities, nor the great sages know My origin, because I AM the very origin of all those divine entities and the Great sages.
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Chapter 10, śloka 14,
sarvametadṛtaṃ manye
yanmāṃ vadasi keśava |
na hi te bhagavanvyaktiṃ
vidurdevā na dānavāḥ ||)
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(sarvam etat ṛtam manye
yat mām vadasi keśava |
na hi te bhagavan vyaktiṃ
viduḥ devāḥ na dānavāḥ ||)
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Meaning :
arjuna says ;
O keśava! ( śrīkṛṣṇa!), ; whatever you say and have told me so far, I take all this as Truth , O Lord! No doubt, neither the gods ( devatā) nor the demons (dānavā) know your manifestation (avatāra).
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Note :
Here we come across the two approaches about the Truth / Reality of śrīkṛṣṇa. Accordingly, The principle That is śrīkṛṣṇa, is though Immanent is manifest as well. And there is nothing that can stop Him / The Lord of The Whole existence, from manifesting Himself in a human or any other form. This way, one can also worship Him in the form of an (avatāra), if this appeals to one's inclinations and orientation of the mind.
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Chapter 13, śloka 34,
kṣetrakṣetrajñayoreva-
mantaraṃ jñānacakṣuṣā |
bhūtaprakṛtimokṣaṃ ca
ye viduryānti te param ||
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(kṣetra-kṣetrayoḥ evam
antaram jñānacakṣuṣā |
bhūtaprakṛti-mokṣaṃ ca
ye viduḥ yānti te param ||)
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Meaning :
(as is described in śloka 1 to śloka 18 in this chapter 13), Those who with keen attention understand, and by means of the eyes of the pure wisdom, see clearly the distinction between the observed (kṣetra / bhūtaprakṛti) and the observer (kṣetrajña) attain the Supreme.
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Chapter 16, śloka 7,
pravṛttiṃ ca nivṛttiṃ ca
janā na vidurāsurāḥ |
na śaucaṃ nāpi cācāro
na satyaṃ teṣu vidyate ||
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(pravṛttim ca nivṛttim
ca janāḥ na viduḥ āsurāḥ |
na śaucam na ca ācāraḥ
na satyam teṣu vidyate ||)
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Meaning :
Those having evil propensities (āsurī pravṛtti) of mind, neither know how and why the mind gets caught in the different modes and tendencies, and how and why it becomes free from them. They don't know what is the purity and clarity of actions and purpose, they neither observe a way of good conduct, nor have inclination and attention towards truth.
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Chapter 18, śloka 2,
śrībhagavānuvāca :
kāmyānāṃ karmaṇāṃ nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayo viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgaṃ
prāhustyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||
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(kāmyānām karmaṇām nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayaḥ viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgam
prāhuḥ tyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||)
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Meaning :
śrīkṛṣṇa said :
Learned know, giving up of the actions prompted by the desires of enjoyments is the right kind of Renunciation, And giving up the fruits of each and every action is termed as tyāgaṃ by the wise,
- vicakṣaṇāḥ .
Note : Summarily there is a renunciation of action (karma), and there is another, of the fruits of all action (phalatyāgam ).
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’विदुः’ / ’viduḥ’ - जाना, प्राप्त किया, जानते हैं (’विद्’ अन्य पुरुष, वर्तमान काल, लट्, बहुवचन),
अध्याय 4, श्लोक 2,
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥
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(एवम् परम्पराप्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः ।
सः कालेन इह महता योगो नष्टः परंतपः ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से परम्परा से (देखिए, श्लोक1) प्राप्त होते चले आये इस (योग) को राजर्षियों ने जाना / राजर्षि जानते हैं । वह यह योग बहुत काल के बीत जाने पर इस धरती से लुप्तप्राय हो गया ।
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अध्याय 7, श्लोक 29,
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
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(जरामरणमोक्षाय माम् आश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तत् विदुः कृत्स्नम् अध्यात्मम् कर्म च अखिलम् ॥)
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भावार्थ :
जरा (वृद्धावस्था, या शरीर का जीर्ण-शीर्ण होना) तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए जो मुझ पर आश्रित होकर मेरी प्राप्ति के लिए यत्नशील हैं, वे उस ब्रह्म को जान लेते हैं, तथा सम्पूर्ण अध्यात्म एवं सम्पूर्ण कर्म के तत्व को भी (जान लेते हैं) ।
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अध्याय 7, श्लोक 30,
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥
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(साधिभूताधिदैवम् माम् साधियज्ञम् च ये विदुः ।
प्रयाणकाले अपि च माम् ते विदुः युक्तचेतसः ॥)
--
भावार्थ :
जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवसहित मुझे / मेरे स्वरूप को अन्तकाल में भी जानते हैं, वे मुझमें समाहित चित्त हुए मुझे अवश्य ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त हो जाते हैं ।
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टिप्पणी :
1. अधिभूत, अधियज्ञ तथा अधिदैव के बारे में अध्याय 8 के श्लोक 4 में अधिक अच्छी तरह बतलाया गया है ।
2. ’विद्’ धातु को 4 अर्थों में प्रयोग किया जाता है, ’विदुः’ ’अदादिगण’ की दृष्टि से लट्-लकार प्रथम (अन्य) पुरुष बहुवचन है । अर्थ है : (वे) जानते हैं । पर्याय से विद् धातु के 4 अर्थ क्रमशः - जानना, होना, पाना, और कहना हैं । ’ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाना’ जहाँ ’जानना’ कोई ’सूचनात्मक ज्ञान’ नहीं होता । ब्रह्म स्वयं ही ज्ञानस्वरूप है, अर्थात् ’जानना’ ब्रह्म का ही यथार्थ है ।
इसलिए उपरोक्त श्लोक में 'विदुः' का तात्पर्य है परमात्मा को जानते हुए वही हो रहना ।
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अध्याय 8, श्लोक 17,
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥)
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(सहस्रयुगपर्यन्तम् अहः यत् ब्रह्मणः विदुः ।
रात्रिम् युगसहस्रानाम् ते अहो-रात्र-विदः जनाः ॥)
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भावार्थ : काल के तत्व को जानने तथा ’दिन-रात’ के परिमाण द्वारा उसकी गणना करनेवाले, चार युगों के एक हज़ार बार व्यतीत हो जाने की अवधिवाले जिस समय को ब्रह्मा का एक दिन, तथा इसी प्रकार जिस (चार युगों के एक हज़ार बार व्यतीत हो जाने की अवधि) को ही उनकी एक रात्रि का समय कहते हैं ।
(अगले श्लोक क्रमांक 18 में आगे कहा गया है, ...)
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अध्याय 10, श्लोक 2,
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहं आदिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
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(न मे विदुः सुरगणाः प्रभवम् न महर्षयः ।
अहम् आदिः हि देवानाम् महर्षीणाम् च सर्वशः ॥)
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भावार्थ :
मेरी उत्पत्ति (आविर्भाव) को न तो सुरगण (देवता) जानते हैं, और न ही कोई भी महर्षि । क्योंकि मैं ही सब प्रकार से देवताओं का तथा महर्षियों का भी आदि कारण हूँ ।
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अध्याय 10, श्लोक 14,
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥)
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(सर्वम् एतत् ऋतम् मन्ये यत् माम् वदसि केशव ।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुः देवाः न दानवाः ॥)
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भावार्थ : (अर्जुन कहते हैं :)
हे केशव आप अपने बारे में मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, उस सबको मैं सत्य मानता हूँ । भगवन! आपके प्राकट्य को, कार्य को, और यथार्थ को न तो देवता जानते हैं और न ही दानव ।
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टिप्पणी : यहाँ पुनः यह जानना रोचक होगा कि जहाँ पौराणिक दृष्टि से ’ईश्वर’ के अवतार के आधार पर या वैदिक आधार पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार से भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन और कार्य को भिन्न-भिन्न रूप से कहा और ग्रहण किया जा सकता है और उनमें विसंगति हमारी परिपक्वता के अनुसार ही हमें प्रतीत होगी ।
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अध्याय 13, श्लोक 34,
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥
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(क्षेत्र-क्षेत्रयोः एवम् अन्तरम् ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृति-मोक्षं च ये विदुः यान्ति ते परम् ॥)
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भावार्थ :
(इस अध्याय के श्लोक 1 से 18 तक विस्तार से वर्णित किए गए) क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा भूतप्रकृति (गुणों का गुणों में वर्तन) से मुक्ति को जो ज्ञानदृष्टि से जान लेते हैं, वे परमार्थ को प्राप्त हो जाते हैं ।
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अध्याय 16, श्लोक 7,
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥
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(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च जनाः न विदुः आसुराः ।
न शौचम् न च आचारः न सत्यम् तेषु विद्यते ॥)
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भावार्थ :
आसुरी प्रवृत्ति की प्रबलता जिनमें होती है, वे न तो यह जानते हैं कि (विषयों में) मन की प्रवृत्ति क्यों और कैसे होती है, और न ही यह, कि (विषयों से) मन की निवृत्ति क्यों और कैसे होती है । न तो वे शुचिता / अशुचिता क्या है, इसे जानते हैं न सदाचरण, और न ही उनमें सत्य के लिए कोई महत्व-बुद्धि होती है ।
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अध्याय 18, श्लोक 2,
श्रीभगवानुवाच :
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥
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(काम्यानाम् कर्मणाम् न्यासं सन्न्यासं कवयः विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागम् प्राहुः त्यागं विचक्षणाः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा :
विद्वान् पुरुष कामनाओं की प्राप्ति के उद्देश्य से किए जानेवाले कर्मों का त्याग ही संन्यास है, ऐसा समझते हैं, जबकि (अन्य) विचारपूर्वक देखने-जाननेवालों के मतानुसार समस्त कर्मफल का त्याग ही वस्तुतः त्याग होता है ।
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टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक में संक्षेप में संन्यास को परिभाषित किया गया है । यह जानना रोचक होगा कि इसका शाब्दिक अर्थ व्युत्पत्ति के आधार पर मुख्यतः दो प्रकार से प्राप्त होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’अस्’ धातु (’होने) के अर्थ में संयुक्त करने पर ’न्यस्’ और फिर इससे अपत्यार्थक ’न्यास’ व्युत्पन्न होता है ।
’नि’ उपसर्ग के साथ ’आस्’ धातु (बैठने, स्थिर होने के अर्थ में) से ’न्यास्’ और ’न्यास’ प्राप्त होता है ।
तात्पर्य यह कि एक ओर जहाँ किसी वस्तु को उसके यथोचित स्थान पर रखना ’न्यास’ है, तो दूसरी ओर अपने स्वाभाविक स्वरूप (आत्मा) में मन को स्थिरता से रखना भी ’न्यास’ ही है । इसी को गौण अर्थ में न्यास अर्थात् अंग्रेज़ी भाषा के trust के लिए हिन्दी में प्रयुक्त किया जाता है ।
यह तो हुआ ’न्यास’ । इसके साथ ’सं’ उपसर्ग लगा देने से इसे पूर्णता प्राप्त हो जाती है और ’संन्यास’ प्राप्त हो जाता है ।
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’विदुः’ / ’viduḥ’ - knew, know (plural).
Chapter 4, śloka 2,
evaṃ paramparāprāpta-
mimaṃ rājarṣayo viduḥ |
sa kāleneha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapa ||
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(evam paramparāprāptam
imam rājarṣayo viduḥ |
saḥ kālena iha mahatā
yogo naṣṭaḥ paraṃtapaḥ ||)
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This yoga that was transferred in succession and was / is acquired traditionally (as described in śloka1) was / is known by the king-sages (rājarṣi), And in the long passage of time, the same has become almost lost to us.
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Chapter 7, śloka 29,
jarāmaraṇamokṣāya
māmāśritya yatanti ye |
te brahma tadviduḥ kṛtsna-
madhyātmaṃ karma cākhilam ||
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(jarāmaraṇamokṣāya
mām āśritya yatanti ye |
te brahma tat viduḥ kṛtsnam
adhyātmam karma ca akhilam ||)
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Meaning :
Those seeking liberation from aging and death (and rebirths), come to Me, and make efforts for this, they know the Reality (brahma), the essence of spirituality (adhyātma) and also the secret of the action (karma)
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Chapter 7, śloka 30,
sādhibhūtādhidaivaṃ māṃ
sādhiyajñaṃ ca ye viduḥ |
prayāṇakāle:'pi ca māṃ
te viduryuktacetasaḥ ||
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(sādhibhūtādhidaivam mām
sādhiyajñam ca ye viduḥ |
prayāṇakāle api ca mām
te viduḥ yuktacetasaḥ ||)
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Meaning :
Through their constant remembrance of ME, those who attain ME, and see ME as the ultimate spiritual power that supports all matter and material. Those, who know ME the source of All Cosmic Intelligence, and The Lord of All sacrifices, are always in ME, They are the Wise.
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Chapter 8, śloka 17,
sahasrayugaparyantam-
aharyadbrahmaṇo viduḥ |
rātriṃ yugasahasrāntāṃ
te:'horātravido janāḥ ||)
--
(sahasrayugaparyantam
ahaḥ yat brahmaṇaḥ viduḥ |
rātrim yugasahasrānām
te aho-rātra-vavidaḥ janāḥ ||)
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Meaning :
Those who know the nature and essence of Time, say that the brahma's one day and likewise one night also, each comprises of 1000 yugas. (and a yuga on the human scale of time, is again as is described in scriptures).
(... Continued in the next śloka 18 of this chapter6).
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Note : From this and the next few śloka-s, we get an interesting Hint:
We can guess about the nature of the entity that is given this name 'brahma'. And we can see The two faces of 'Time'; The 'Relative' that according to our assumption keeps on 'passing' moment to moment, getting lost every second, and at the same time, There is yet another that passes NOT. The 'Absolute', Imperishable, Immutable, Unmovable, 'Timeless-ness'.
In 'Poems and Parables' J.Krishnamurti had observed:
"Time and space but exist in mind."
We can see his difficulty while using the term 'mind'. I think by this He might have meant -'Thought'.
The 'Thought' as is used in His Literature coincides with the saṃskṛta as ’vṛtti’ / ’saṅkalpa’, which has another substitute in 'kalpanā' - imagination / thought. So 'thought' and 'time' define one-another. Both are but illusion. Their functioning presumes a ground which is unchanging, Time-less Reality. Which is NOT Insentient, But Conscious, Intelligence Principle. We can understand and grasp this much only. In paurāṇika parlance, this 'creation' is but a saṅkalpa, in 's mind (kalpana) which gives rise to 'kalpa'.
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Chapter 10, śloka 2,
na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavaṃ na maharṣayaḥ |
ahaṃ ādirhi devānāṃ
maharṣīṇāṃ ca sarvaśaḥ ||
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(na me viduḥ suragaṇāḥ
prabhavam na maharṣayaḥ |
aham ādiḥ hi devānām
maharṣīṇām ca sarvaśaḥ ||)
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Meaning :
Neither the various celestial beings / divine entities, nor the great sages know My origin, because I AM the very origin of all those divine entities and the Great sages.
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Chapter 10, śloka 14,
sarvametadṛtaṃ manye
yanmāṃ vadasi keśava |
na hi te bhagavanvyaktiṃ
vidurdevā na dānavāḥ ||)
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(sarvam etat ṛtam manye
yat mām vadasi keśava |
na hi te bhagavan vyaktiṃ
viduḥ devāḥ na dānavāḥ ||)
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Meaning :
arjuna says ;
O keśava! ( śrīkṛṣṇa!), ; whatever you say and have told me so far, I take all this as Truth , O Lord! No doubt, neither the gods ( devatā) nor the demons (dānavā) know your manifestation (avatāra).
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Note :
Here we come across the two approaches about the Truth / Reality of śrīkṛṣṇa. Accordingly, The principle That is śrīkṛṣṇa, is though Immanent is manifest as well. And there is nothing that can stop Him / The Lord of The Whole existence, from manifesting Himself in a human or any other form. This way, one can also worship Him in the form of an (avatāra), if this appeals to one's inclinations and orientation of the mind.
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Chapter 13, śloka 34,
kṣetrakṣetrajñayoreva-
mantaraṃ jñānacakṣuṣā |
bhūtaprakṛtimokṣaṃ ca
ye viduryānti te param ||
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(kṣetra-kṣetrayoḥ evam
antaram jñānacakṣuṣā |
bhūtaprakṛti-mokṣaṃ ca
ye viduḥ yānti te param ||)
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Meaning :
(as is described in śloka 1 to śloka 18 in this chapter 13), Those who with keen attention understand, and by means of the eyes of the pure wisdom, see clearly the distinction between the observed (kṣetra / bhūtaprakṛti) and the observer (kṣetrajña) attain the Supreme.
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Chapter 16, śloka 7,
pravṛttiṃ ca nivṛttiṃ ca
janā na vidurāsurāḥ |
na śaucaṃ nāpi cācāro
na satyaṃ teṣu vidyate ||
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(pravṛttim ca nivṛttim
ca janāḥ na viduḥ āsurāḥ |
na śaucam na ca ācāraḥ
na satyam teṣu vidyate ||)
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Meaning :
Those having evil propensities (āsurī pravṛtti) of mind, neither know how and why the mind gets caught in the different modes and tendencies, and how and why it becomes free from them. They don't know what is the purity and clarity of actions and purpose, they neither observe a way of good conduct, nor have inclination and attention towards truth.
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Chapter 18, śloka 2,
śrībhagavānuvāca :
kāmyānāṃ karmaṇāṃ nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayo viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgaṃ
prāhustyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||
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(kāmyānām karmaṇām nyāsaṃ
sannyāsaṃ kavayaḥ viduḥ |
sarvakarmaphalatyāgam
prāhuḥ tyāgaṃ vicakṣaṇāḥ ||)
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Meaning :
śrīkṛṣṇa said :
Learned know, giving up of the actions prompted by the desires of enjoyments is the right kind of Renunciation, And giving up the fruits of each and every action is termed as tyāgaṃ by the wise,
- vicakṣaṇāḥ .
Note : Summarily there is a renunciation of action (karma), and there is another, of the fruits of all action (phalatyāgam ).
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