Sunday, August 31, 2014

आज का श्लोक, ’विचाल्यते’ / ’vicālyate’

आज का श्लोक, ’विचाल्यते’ / ’vicālyate’
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’विचाल्यते’ / ’vicālyate’ - विचलित होता है , अस्थिरचित्त होता है,

अध्याय 6, श्लोक 22,

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते
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(यम् लब्ध्वा च अपरम् लाभम् मन्यते न अधिकम् ततः ।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते ॥)
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भावार्थ :
जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य अनुभव करता है कि इससे बढ़कर दूसरा कोई वास्तविक लाभ नहीं हो सकता, और जिसमें अवस्थित हो जाने पर वह बड़े से बड़े दुःख से भी अप्रभावित रहता है, ...
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टिप्पणी :
मनुष्य को चाहिए कि ऐसी वस्तु (आत्म) को जाने, ...श्लोक 23 देखें ।
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अध्याय 6, श्लोक 23,

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णमानसः ।
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(तम् विद्यात् दुःखसंयोग-वियोगम् योगसञ्ज्ञितम् ।
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनिर्विण्णमानसः ॥)
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भावार्थ :
जो दुःख के संयोग से विरहित है -अर्थात् जिसमें दुःख का नितान्त अभाव है, जिसे योग की संज्ञा दी जाती है -अर्थात् जो ऐसा योग है, उसे इस प्रकार से निश्चयपूर्वक जानकर, उस योग को धैर्यसहित, बिना उकताए, अथक् प्रयास सहित, उत्साहपूर्ण चित्त से सिद्ध किया जाना चाहिए ।
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अध्याय 14, श्लोक 23,

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥
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(उदासीनवत् आसीनः गुणैः यः न विचाल्यते ।
गुणाः वर्तन्ते इति एव यः अवतिष्ठति न इङ्गते ॥)
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भावार्थ :
(जगत् की और देह, इन्द्रियों मन, बुद्धि, तथा अहंकार की गतिविधियों को) उदासीनतापूर्वक देखता हुआ जो अपने स्वरूप में स्थित रहता है, और प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा जिसे विचलित नहीं किया जाता, जो इन सारी गतिविधियों को, गुणों को परस्पर व्यवहार करते हुए बस देखता भर है, और अपनी शान्ति में स्थित रहता है...
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’विचाल्यते’ / ’vicālyate’  -  is affected, is perturbed, is shaken,

Chapter 6, śloka 22,

yaṃ labdhvā cāparaṃ lābhaṃ
manyate nādhikaṃ tataḥ |
yasminsthito na duḥkhena
guruṇāpi vicālyate ||
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(yam labdhvā ca aparam lābham
manyate na adhikam tataḥ |
yasmin sthito na duḥkhena
guruṇā api vicālyate ||)
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Meaning :
(One should know such a thing, ....)*
Having acquired which, one realizes that in comparison to this, there is no other achievement higher, and staying where-in, one is not shaken even in the greatest sorrow,
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Note :
*This śloka 22 serves as the ground for the next śloka 23.
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Chapter 6, śloka 23,

taṃ vidyādduḥkhasaṃyoga-
viyogaṃ yogasañjñitam |
sa niścayena yoktavyo
yogo:'nirviṇṇamānasaḥ |
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(tam vidyāt duḥkha-saṃyoga-
viyogam yogasañjñitam |
saḥ niścayena yoktavyaḥ
yogaḥ anirviṇṇamānasaḥ ||)
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Meaning :
Know what is named 'yoga' is that, which results in the end of association of sorrow. This should be carefully understood with conviction that such a state is achieved by firm resolve, untiring and zealous spirit.
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(One should know such a thing, .... / This should be carefully understood with conviction ...)*
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Chapter 14, śloka 23,

udāsīnavadāsīno 
guṇairyo na vicālyate |
guṇā vartanta ityeva 
yo:'vatiṣṭhati neṅgate ||
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(udāsīnavat āsīnaḥ 
guṇaiḥ yaḥ na vicālyate |
guṇāḥ vartante iti eva 
yaḥ avatiṣṭhati na iṅgate ||)
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Meaning :
Staying aloof (from the activities of world, body, senses, mind, intellect and ego) and realizing that this all is the inter-play of the three attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti), one who is not disturbed from the peace of the Self, he firmly abides in. ...   
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