Saturday, August 30, 2014

आज का श्लोक, ’विजितेन्द्रियः’ / ’vijitendriyaḥ’

आज का श्लोक,
’विजितेन्द्रियः’ / ’vijitendriyaḥ’
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’विजितेन्द्रियः’ / ’vijitendriyaḥ’ - जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है,

अध्याय 6, श्लोक 8,

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥
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(ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः विजितेन्द्रियः
युक्तः इति उच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥)
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भावार्थ :
जिसका अन्तःकरण ज्ञान (सापेक्ष स्तर पर जीव के रूप में अपने जगत् के साथ अपना संबंध) तथा विज्ञान ( निरपेक्ष स्तर पर चेतना के रूप में ईश्वर से अपनी अभिन्नता) से परम तृप्त है, और जो उस अभिन्नता में अचल है, जो संयतेन्द्रिय है, इस प्रकार से योग में भली-भाँति अवस्थित उस योगी के लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण एक समान हैं, ...
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’विजितेन्द्रियः’ / ’vijitendriyaḥ’  - One who has control over the senses,
     
Chapter 6, śloka 8,

jñānavijñānatṛptātmā 
kūṭastho vijitendriyaḥ |
yukta ityucyate yogī 
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||
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(jñānavijñānatṛptātmā 
kūṭasthaḥ vijitendriyaḥ |
yuktaḥ iti ucyate yogī 
samaloṣṭāśmakāñcanaḥ ||)
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Meaning : One established happily and perfectly content in the proper understanding of the relative knowledge ( jñāna of oneself as a soul and one's world, and their relationship) and the ultimate wisdom (vijñāna of one's identity as consciousness only and relationship / one-ness with the Brahmam / ātman), one who keeping senses well under control,stays firmly unmoved in that stance of his, for him a lump of earth, a stone and gold are of equal value.
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