आज का श्लोक, ’विद्धि’ / ’viddhi’ -.1
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’विद्धि’ / ’viddhi’ - जानो,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
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भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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अध्याय 3, श्लोक 15,
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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(कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्म-अक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात् सर्वगतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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भावार्थ :
यह जान लो कि कर्म का उद्भव ब्रह्म से होता है, जबकि ब्रह्म का (उद्भव), अक्षर (अविनाशी) परमात्मा से । इसलिए सबमें ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित, ब्रह्म सदैव यज्ञ में प्रतिष्ठित (भली-भाँति अवस्थित) है ।
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अध्याय 3, श्लोक 32,
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढान्स्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥
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(ये तु एतत् अभ्यसूयन्तः न अनुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञान-विमूढान् तान् विद्धि नष्टान् अचेतसः ॥)
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भावार्थ : जो मनुष्य मुझमें दोष देखते हुए, ईर्ष्या से ग्रस्त होकर मेरे इस मत का अनुसरण नहीं करेंगे, उन सम्पूर्ण ज्ञानों से विमोहित हुई बुद्धिवालों को विनष्ट ही जानो ।
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अध्याय 3, श्लोक 37,
श्रीभगवानुवाच :
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
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(कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुणसमुद्भवम् ।
महाशनः महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम् ॥)
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भावार्थ :
श्रीभगवान् ने कहा :
यह काम, यह क्रोध, यह रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला, यह बहुत खाने जिसकी भूख कभी शान्त नहीं होती अर्थात् निरन्तर भोग करनेवाला, महापापी अर्थात् महादुष्ट, इसे ही वैरी अर्थात् शत्रु जानो ।
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अध्याय 4, श्लोक 13,
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
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(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
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अध्याय 4, श्लोक 32,
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
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(एवम् बहुविधाः यज्ञाः वितताः ब्रह्मणः मुखे ।
कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान् एवम् ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से जिन विविध और अनेक प्रकार के विविध यज्ञ वेद के मुख से कहे गए हैं, उन सभी का अनुष्ठान मन-बुद्धि, इन्द्रिय, तथा शरीर के माध्यम से, अर्थात् ’कर्म’ से ही पूर्ण होता है, यह जानने पर तुम (कर्म एवं कर्म-बन्धन) से छूट जाओगे ।
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अध्याय 4, श्लोक 34,
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
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(तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः ॥)
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भावार्थ :
उस ब्रह्म (के तत्त्व) को जानने के लिए तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाओ, उन्हें विधिपूर्वक नमस्कार कर नम्रता से उनकी सेवा द्वारा उन्हें प्रसन्न कर सम्यक् रीति से प्रश्न करते हुए उसे जानो । वे तुम्हें ज्ञान (की प्राप्ति के लिए) उचित उपदेश देंगे ।
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अध्याय 6, श्लोक 2,
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
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(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
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भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
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अध्याय 7, श्लोक 5,
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतं महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
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(अपरा इयम् इतः तु अन्याम् प्रकृतिम् विद्धि मे पराम् ।
जीवभूताम् महाबाहो यया इदम् धार्यते जगत् ॥)
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भावार्थ :
(इस अध्याय के गत श्लोक 4 में भगवान् की अष्टधा (जड) प्रकृति के बारे में कहा गया ।)
इस अष्टधा अपरा से अन्य जीवभूता (चेतन) प्रकृति को जिसके माध्यम से इस सम्पूर्ण जगत् को धारण किया जाता है, हे महाबाहु (अर्जुन)! मेरी परा प्रकृति जानो ।
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टिप्पणी :
गत श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी अपरा (जड) प्रकृति के आठ तत्वों (भूमि / पृथ्वी, आप / जल, अनल / अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार से बनी) का वर्णन किया । प्रस्तुत श्लोक 5 में पुनः उस जड प्रकृति से अन्य अपनी चेतन-प्रकृति / जीव-समष्टि का वर्णन परा प्रकृति कहकर किया ।
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अध्याय 7, श्लोक 10.
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥
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(बीजम् माम् सर्वभूतानाम् विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिः बुद्धिमताम् अस्मि तेजः तेजस्विनाम् अहम् ॥)
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भावार्थ : हे पार्थ (अर्जुन) ! समस्त भूतों का सनातन बीज मुझको ही जानो । बुद्धिवान् पुरुषों में जो बुद्धि है, वह हूँ, तथा तेजस्वियों में जो तेज है, वह मैं ।
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अध्याय 7, श्लोक 12,
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
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(ये च एव सात्त्विकाः भावाः राजसाः तामसाः च ये ।
मत्तः एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि ॥
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भावार्थ :
परमात्मा विशुद्ध चैतन्य मात्र है, उसमें ’अस्मि’ की भावना तक नहीं है । इस दृष्टि से जीव भी वही है । किन्तु किसी देह-विशेष में व्यक्त हुआ वही चैतन्य, देह के नाम-रूप से अपने पृथक् होने का विचार कर लेता है । और तब भी उसे यह स्पष्ट नहीं होता कि इस ’पृथक्’ सत्ता के रूप में वह क्या है ।’जानना’ और ’होना’ ’चित्’ और ’सत्’ तब भी उसके लिए स्वतःप्रमाणित सत्य होते हैं, जबकि यह ’पृथक्-ता’ का विचार मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ अन्य विचारों की तरह का ही एक विचार ही होता है । किन्तु इस अर्थ में यह शेष सभी विचारों से भिन्न होता है कि यह दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में सतत् बना रहता है । यद्यपि निद्रावस्था में यह ’पृथक्-ता’ का विचार दूसरे सभी की तरह ही विलीन हो जाता है और ’चित्’ और ’सत्’ यथावत् तब भी अविच्छिन्न रहते हैं । क्योंकि निद्रा टूटने पर दूसरे विचार, और उनकी पृष्ठभूमि में विद्यमान ’पृथक्-ता’ पुनः आ धमकते हैं, जबकि उनके अभाव में निद्रा की गहरी अवस्था में भी मनुष्य मात्र को किसी अद्भुत् आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है । संक्षेप में कहें तो गहरी निद्रा में ’चित्’, ’सत्’ और ’आनन्द’ भी प्रत्यक्ष ही जाने जाते हैं । हाँ यह अवश्य है कि ’विचार’ की भाषा में उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । किन्तु इस तथ्य पर ध्यान देने से कि ’चित्’ ’सत्’ और ’आनन्द’ ही वस्तुतः पृथक्-ता की भावना की भी आधारभूत पृष्ठभूमि है, और हमारा चित्त कभी कभी अनायास ही इस आधारभूत पृष्ठभूमि को जागृत अवस्था में भी छू लेता है, हम उसे उस परमात्मा की तरह देख सकते हैं जिसका वर्णन उपरोक्त श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने ’अहम्’ नाम देकर किया है ।
वे संस्कृत व्याकरण के ’उत्तम पुरुष’ एकवचन ’अहम्’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसमें सात्त्विक राजस और तामस सारे भाव उठते-गिरते रहते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं :
ये जो भी सात्त्विक, और ये जो राजस और तामस भाव हैं, वे उनका उद्भव मुझसे ही होता है, उन्हें इस तरह से जानो । और मैं उनमें नहीं हूँ बल्कि वे ही मुझमें हैं । प्रथम दृष्टि में इस वक्तव्य में विरोधाभास दिखलाई देगा किन्तु जब हम ’परमात्मा’ का अर्थ ’चित्’ ’सत्’ और आनन्द रूपी अविकारी सत्ता समझें और उसे ’अहम्’ कहें तो हम ’उत्तम पुरुष’ / ’पुरुषोत्तम’ का मर्म अवश्य देख लेंगे । वास्तव में अहम् एवम् अहंकार दोनों भिन्न तत्त्वों के नाम हैं । अहंकार सदैव सीमित और खण्डित होता है, ’अहम्’ सदा असीमित, अखण्ड, और ....।
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’विद्धि’ / ’viddhi’ - know, see, realize,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 3, śloka 15,
karma brahmodbhavaṃ viddhi
brahmākṣarasamudbhavam |
tasmātsarvagataṃ brahma
nityaṃ yajñe pratiṣṭhitam ||
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(karma brahmodbhavam viddhi
brahma-akṣarasamudbhavam |
tasmātsarvagatam brahma
nityam yajñe pratiṣṭhitam ||
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Meaning :
Know well, actions (karma) originate from Brahman (Totality / Whole), while Brahman (manifest / phenomenon) from The Imperishable (Noumenon). Therefore all-pervading Brahman is present in sacrifice (yajña) always.
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Chapter 3, śloka 32,
ye tvetadabhyasūyanto
nānutiṣṭhanti me matam |
sarvajñānavimūḍhānstān
viddhi naṣṭānacetasaḥ ||
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(ye tu etat abhyasūyantaḥ
na anutiṣṭhanti me matam |
sarvajñāna-vimūḍhān tān
viddhi naṣṭān acetasaḥ ||)
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Meaning :
Those who doubt Me and because of their disliking for Me, don't follow this teaching, even if they have all knowledge(s), that knowledge(s) will delude them even more, and they will be simply ruined.
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Chapter 3, śloka 37,
śrībhagavānuvāca :
kāma eṣa krodha eṣa
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśano mahāpāpmā
viddhyenamiha vairiṇam ||
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(kāmaḥ eṣaḥ krodhaḥ eṣaḥ
rajoguṇasamudbhavam |
mahāśanaḥ mahāpāpmā
viddhi enam iha vairiṇam ||)
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Meaning :
Know this lust, this anger which is ever so hungry and is never satiated, is the great sinner, is the enemy, that arises from rajoguṇa.
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Chapter 4, śloka 13,
cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ
guṇakarmavibhāgaśaḥ|
tasya kartāramapi māṃ
vidhyakartāramavyayam ||
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(cāturvarṇyam mayā sṛṣṭam
guṇakarmavibhāgaśaḥ |
tasya kartāraṃ api mām
viddhi akartāram-avyayam ||)
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Meaning :
According to the innate nature and tendencies for action of man, I have created the four-fold order in this world. Even though I AM the Imperishable, and the Creator of them, know for certain I AM as such ever, the non-doer.
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Chapter 4, śloka 32,
evaṃ bahuvidhā yajñā
vitatā brahmaṇo mukhe |
karmajānviddhi tānsarvan-
evaṃ jñātvā vimokṣyase ||
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(evam bahuvidhāḥ yajñāḥ
vitatāḥ brahmaṇaḥ mukhe |
karmajān viddhi tān sarvān
evam jñātvā vimokṣyase ||)
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Meaning :
In this way veda described many different kinds of sacrifices / 'yajña-s', that are performed only with the help of action (karma) through body, heart and mind, and intellect, knowing this, you shall be liberated (from the bondage of ’karma’ and ’karma-bandhana’).
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Chapter 4, śloka 34,
tadviddhi praṇipātena
paripraśnena sevayā |
upadekṣyanti te jñānaṃ
jñāninastattvadarśinaḥ ||
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(tat viddhi praṇipātena
paripraśnena sevayā |
upadekṣyanti te jñānam
jñāninaḥ tattvadarśinaḥ ||)
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Meaning :
Know / grasp 'That' (Reality / Brahman) by means of serving them with due respect and honor, and questioning them properly about the Reality . And they, -those who have themselves Realized the same, will point out the way to This (Reality) for you,
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Chapter 6, śloka 2,
yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
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(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
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Meaning :
What is described as sannyāsa, Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava! (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire
(saṅkalpa-vṛtti).
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Chapter 7, śloka 5,
apareyamitastvanyāṃ
prakṛtiṃ viddhi me parām |
jīvabhūtaṃ mahābāho
yayedaṃ dhāryate jagat ||
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(aparā iyam itaḥ tu anyām
prakṛtim viddhi me parām |
jīvabhūtām mahābāho
yayā idam dhāryate jagat ||)
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Meaning :
(In the previous śloka 4, śrīkṛṣṇa described the eight-fold prakṛti (that is composed of the earth / pṛthvī, water / āpa / jala, fire (agni), air, ether, mind (mana), intellect (buddhi), and ego) as the aparā aṣṭadhā (jaḍa) prakṛti of The Supreme Being / Reality.)
In comparison, there is yet another kind of parā prakṛti of The Supreme Being / Reality that is of the nature of pure consciousness only and is the totality cetana-prakṛti / jīva-samaṣṭi of all conscious beings. And the universe is part of and supported by this another kind of parā prakṛti of the Lord.
Note :
The Lord, The Supreme is even beyond this cetana-prakṛti, He is The Intelligence, and beyond the grasp of the mind / intellect of man.
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Chapter 7, śloka 10,
bījaṃ māṃ sarvabhūtānāṃ
viddhi pārtha sanātanam |
buddhirbuddhimatāmasmi
tejastejasvināmaham ||
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(bījam mām sarvabhūtānām
viddhi pārtha sanātanam |
buddhiḥ buddhimatām asmi
tejaḥ tejasvinām aham ||)
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Meaning :
O pārtha (arjuna) ! Know Me the seed eternal, of all being, and Know, I AM the intellect in all those who have discretion and thought, the brilliance who have acumen of mind.
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Chapter 7, śloka 12,
ye caiva sāttvikā bhāvā
rājasāstāmasāśca ye |
matta eveti tānviddhi
na tvahaṃ teṣu te mayi ||
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(ye ca eva sāttvikāḥ bhāvāḥ
rājasāḥ tāmasāḥ ca ye |
mattaḥ eva iti tān viddhi
na tu aham teṣu te mayi ||
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Meaning :
These tendencies of sAttvika (of harmony, peace and light ), of rAjasa (passion, restlessness, confusion), and also tAmasa (indolence, inertia, ignorance and darkness) of mind though all they have their emergence from ME; know well, They are in ME, and not I, in them.
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There is a ground where-from and wherein these tendencies emerge, express them-self and dissolve again and again. That ground is 'consciousness' which is devoid of even the 'I'-sense of being 'some-one'. This 'I'-sense, -of being 'some-one' is a thought and inference on the part of intellect (the faculty of brain). This 'I'-sense, intellect and tendencies keep rising and setting, but the ground neither rises nor sets. This ground is The timeless consciousness, undivided, unlimited, while the 'person', a bundle of memories associated with and caught together in 'I'-sense is always a person, limited in a specific body, time and space. Knowing thus ...
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’विद्धि’ / ’viddhi’ - जानो,
अध्याय 2, श्लोक 17,
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
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(अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् ।
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ॥)
--
भावार्थ :
नाशरहित तो (तुम) उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण (दृश्य जगत् एवम् दृष्टा भी) व्याप्त है । स्वरूप से ही अविनाशी इस तत्व का जो सबसे / सबमें व्याप्त है, कोई कर सके, ऐसा सक्षम कोई नहीं है ।
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अध्याय 3, श्लोक 15,
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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(कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्म-अक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात् सर्वगतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
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भावार्थ :
यह जान लो कि कर्म का उद्भव ब्रह्म से होता है, जबकि ब्रह्म का (उद्भव), अक्षर (अविनाशी) परमात्मा से । इसलिए सबमें ओत-प्रोत, सबमें अवस्थित, ब्रह्म सदैव यज्ञ में प्रतिष्ठित (भली-भाँति अवस्थित) है ।
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अध्याय 3, श्लोक 32,
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढान्स्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥
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(ये तु एतत् अभ्यसूयन्तः न अनुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञान-विमूढान् तान् विद्धि नष्टान् अचेतसः ॥)
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भावार्थ : जो मनुष्य मुझमें दोष देखते हुए, ईर्ष्या से ग्रस्त होकर मेरे इस मत का अनुसरण नहीं करेंगे, उन सम्पूर्ण ज्ञानों से विमोहित हुई बुद्धिवालों को विनष्ट ही जानो ।
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अध्याय 3, श्लोक 37,
श्रीभगवानुवाच :
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
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(कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुणसमुद्भवम् ।
महाशनः महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम् ॥)
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भावार्थ :
श्रीभगवान् ने कहा :
यह काम, यह क्रोध, यह रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला, यह बहुत खाने जिसकी भूख कभी शान्त नहीं होती अर्थात् निरन्तर भोग करनेवाला, महापापी अर्थात् महादुष्ट, इसे ही वैरी अर्थात् शत्रु जानो ।
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अध्याय 4, श्लोक 13,
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
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(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
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अध्याय 4, श्लोक 32,
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
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(एवम् बहुविधाः यज्ञाः वितताः ब्रह्मणः मुखे ।
कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान् एवम् ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥)
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भावार्थ :
इस प्रकार से जिन विविध और अनेक प्रकार के विविध यज्ञ वेद के मुख से कहे गए हैं, उन सभी का अनुष्ठान मन-बुद्धि, इन्द्रिय, तथा शरीर के माध्यम से, अर्थात् ’कर्म’ से ही पूर्ण होता है, यह जानने पर तुम (कर्म एवं कर्म-बन्धन) से छूट जाओगे ।
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अध्याय 4, श्लोक 34,
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
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(तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः ॥)
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भावार्थ :
उस ब्रह्म (के तत्त्व) को जानने के लिए तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाओ, उन्हें विधिपूर्वक नमस्कार कर नम्रता से उनकी सेवा द्वारा उन्हें प्रसन्न कर सम्यक् रीति से प्रश्न करते हुए उसे जानो । वे तुम्हें ज्ञान (की प्राप्ति के लिए) उचित उपदेश देंगे ।
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अध्याय 6, श्लोक 2,
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
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(यम् सन्न्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव ।
न हि असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी भवति कश्चन ॥)
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भावार्थ :
जिसे संन्यास कहा जाता है तुम उसे ही योग जानो , क्योंकि संकल्पों का त्याग किए बिना कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
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अध्याय 7, श्लोक 5,
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतं महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
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(अपरा इयम् इतः तु अन्याम् प्रकृतिम् विद्धि मे पराम् ।
जीवभूताम् महाबाहो यया इदम् धार्यते जगत् ॥)
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भावार्थ :
(इस अध्याय के गत श्लोक 4 में भगवान् की अष्टधा (जड) प्रकृति के बारे में कहा गया ।)
इस अष्टधा अपरा से अन्य जीवभूता (चेतन) प्रकृति को जिसके माध्यम से इस सम्पूर्ण जगत् को धारण किया जाता है, हे महाबाहु (अर्जुन)! मेरी परा प्रकृति जानो ।
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टिप्पणी :
गत श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी अपरा (जड) प्रकृति के आठ तत्वों (भूमि / पृथ्वी, आप / जल, अनल / अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार से बनी) का वर्णन किया । प्रस्तुत श्लोक 5 में पुनः उस जड प्रकृति से अन्य अपनी चेतन-प्रकृति / जीव-समष्टि का वर्णन परा प्रकृति कहकर किया ।
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अध्याय 7, श्लोक 10.
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥
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(बीजम् माम् सर्वभूतानाम् विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिः बुद्धिमताम् अस्मि तेजः तेजस्विनाम् अहम् ॥)
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भावार्थ : हे पार्थ (अर्जुन) ! समस्त भूतों का सनातन बीज मुझको ही जानो । बुद्धिवान् पुरुषों में जो बुद्धि है, वह हूँ, तथा तेजस्वियों में जो तेज है, वह मैं ।
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अध्याय 7, श्लोक 12,
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
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(ये च एव सात्त्विकाः भावाः राजसाः तामसाः च ये ।
मत्तः एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि ॥
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भावार्थ :
परमात्मा विशुद्ध चैतन्य मात्र है, उसमें ’अस्मि’ की भावना तक नहीं है । इस दृष्टि से जीव भी वही है । किन्तु किसी देह-विशेष में व्यक्त हुआ वही चैतन्य, देह के नाम-रूप से अपने पृथक् होने का विचार कर लेता है । और तब भी उसे यह स्पष्ट नहीं होता कि इस ’पृथक्’ सत्ता के रूप में वह क्या है ।’जानना’ और ’होना’ ’चित्’ और ’सत्’ तब भी उसके लिए स्वतःप्रमाणित सत्य होते हैं, जबकि यह ’पृथक्-ता’ का विचार मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ अन्य विचारों की तरह का ही एक विचार ही होता है । किन्तु इस अर्थ में यह शेष सभी विचारों से भिन्न होता है कि यह दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में सतत् बना रहता है । यद्यपि निद्रावस्था में यह ’पृथक्-ता’ का विचार दूसरे सभी की तरह ही विलीन हो जाता है और ’चित्’ और ’सत्’ यथावत् तब भी अविच्छिन्न रहते हैं । क्योंकि निद्रा टूटने पर दूसरे विचार, और उनकी पृष्ठभूमि में विद्यमान ’पृथक्-ता’ पुनः आ धमकते हैं, जबकि उनके अभाव में निद्रा की गहरी अवस्था में भी मनुष्य मात्र को किसी अद्भुत् आनन्द की अनुभूति अवश्य होती है । संक्षेप में कहें तो गहरी निद्रा में ’चित्’, ’सत्’ और ’आनन्द’ भी प्रत्यक्ष ही जाने जाते हैं । हाँ यह अवश्य है कि ’विचार’ की भाषा में उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । किन्तु इस तथ्य पर ध्यान देने से कि ’चित्’ ’सत्’ और ’आनन्द’ ही वस्तुतः पृथक्-ता की भावना की भी आधारभूत पृष्ठभूमि है, और हमारा चित्त कभी कभी अनायास ही इस आधारभूत पृष्ठभूमि को जागृत अवस्था में भी छू लेता है, हम उसे उस परमात्मा की तरह देख सकते हैं जिसका वर्णन उपरोक्त श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने ’अहम्’ नाम देकर किया है ।
वे संस्कृत व्याकरण के ’उत्तम पुरुष’ एकवचन ’अहम्’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसमें सात्त्विक राजस और तामस सारे भाव उठते-गिरते रहते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं :
ये जो भी सात्त्विक, और ये जो राजस और तामस भाव हैं, वे उनका उद्भव मुझसे ही होता है, उन्हें इस तरह से जानो । और मैं उनमें नहीं हूँ बल्कि वे ही मुझमें हैं । प्रथम दृष्टि में इस वक्तव्य में विरोधाभास दिखलाई देगा किन्तु जब हम ’परमात्मा’ का अर्थ ’चित्’ ’सत्’ और आनन्द रूपी अविकारी सत्ता समझें और उसे ’अहम्’ कहें तो हम ’उत्तम पुरुष’ / ’पुरुषोत्तम’ का मर्म अवश्य देख लेंगे । वास्तव में अहम् एवम् अहंकार दोनों भिन्न तत्त्वों के नाम हैं । अहंकार सदैव सीमित और खण्डित होता है, ’अहम्’ सदा असीमित, अखण्ड, और ....।
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’विद्धि’ / ’viddhi’ - know, see, realize,
Chapter 2, śloka 17,
avināśi tu tadviddhi
yena sarvamidaṃ tatam |
vināśamavyayāsya
na kaścitkartumarhati ||
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(avināśi tu tat viddhi
yena sarvam idam tatam |
vināśam avyayasya asya
na kaścit kartum arhati ||)
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Meaning :
Know that, That (brahman), Which is imperishable pervades all this universe. No one is capable to destroy this imperishable principle, (Brahman).
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Chapter 3, śloka 15,
karma brahmodbhavaṃ viddhi
brahmākṣarasamudbhavam |
tasmātsarvagataṃ brahma
nityaṃ yajñe pratiṣṭhitam ||
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(karma brahmodbhavam viddhi
brahma-akṣarasamudbhavam |
tasmātsarvagatam brahma
nityam yajñe pratiṣṭhitam ||
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Meaning :
Know well, actions (karma) originate from Brahman (Totality / Whole), while Brahman (manifest / phenomenon) from The Imperishable (Noumenon). Therefore all-pervading Brahman is present in sacrifice (yajña) always.
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Chapter 3, śloka 32,
ye tvetadabhyasūyanto
nānutiṣṭhanti me matam |
sarvajñānavimūḍhānstān
viddhi naṣṭānacetasaḥ ||
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(ye tu etat abhyasūyantaḥ
na anutiṣṭhanti me matam |
sarvajñāna-vimūḍhān tān
viddhi naṣṭān acetasaḥ ||)
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Meaning :
Those who doubt Me and because of their disliking for Me, don't follow this teaching, even if they have all knowledge(s), that knowledge(s) will delude them even more, and they will be simply ruined.
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Chapter 3, śloka 37,
śrībhagavānuvāca :
kāma eṣa krodha eṣa
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśano mahāpāpmā
viddhyenamiha vairiṇam ||
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(kāmaḥ eṣaḥ krodhaḥ eṣaḥ
rajoguṇasamudbhavam |
mahāśanaḥ mahāpāpmā
viddhi enam iha vairiṇam ||)
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Meaning :
Know this lust, this anger which is ever so hungry and is never satiated, is the great sinner, is the enemy, that arises from rajoguṇa.
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Chapter 4, śloka 13,
cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ
guṇakarmavibhāgaśaḥ|
tasya kartāramapi māṃ
vidhyakartāramavyayam ||
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(cāturvarṇyam mayā sṛṣṭam
guṇakarmavibhāgaśaḥ |
tasya kartāraṃ api mām
viddhi akartāram-avyayam ||)
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Meaning :
According to the innate nature and tendencies for action of man, I have created the four-fold order in this world. Even though I AM the Imperishable, and the Creator of them, know for certain I AM as such ever, the non-doer.
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Chapter 4, śloka 32,
evaṃ bahuvidhā yajñā
vitatā brahmaṇo mukhe |
karmajānviddhi tānsarvan-
evaṃ jñātvā vimokṣyase ||
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(evam bahuvidhāḥ yajñāḥ
vitatāḥ brahmaṇaḥ mukhe |
karmajān viddhi tān sarvān
evam jñātvā vimokṣyase ||)
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Meaning :
In this way veda described many different kinds of sacrifices / 'yajña-s', that are performed only with the help of action (karma) through body, heart and mind, and intellect, knowing this, you shall be liberated (from the bondage of ’karma’ and ’karma-bandhana’).
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Chapter 4, śloka 34,
tadviddhi praṇipātena
paripraśnena sevayā |
upadekṣyanti te jñānaṃ
jñāninastattvadarśinaḥ ||
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(tat viddhi praṇipātena
paripraśnena sevayā |
upadekṣyanti te jñānam
jñāninaḥ tattvadarśinaḥ ||)
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Meaning :
Know / grasp 'That' (Reality / Brahman) by means of serving them with due respect and honor, and questioning them properly about the Reality . And they, -those who have themselves Realized the same, will point out the way to This (Reality) for you,
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Chapter 6, śloka 2,
yaṃ sannyāsamiti prāhur-
yogaṃ taṃ viddhi pāṇḍava |
na hyasaṃnyastasaṅkalpo
yogī bhavati kaścana ||
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(yam sannyāsam iti prāhuḥ
yogam tam viddhi pāṇḍava |
na hi asannyastasaṅkalpaḥ
yogī bhavati kaścana ||)
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Meaning :
What is described as sannyāsa, Renunciation, know well that yoga is the same, O pāṇḍava! (arjuna)! No one can be a yogī without first having relinquished the mode of will prompted by desire
(saṅkalpa-vṛtti).
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Chapter 7, śloka 5,
apareyamitastvanyāṃ
prakṛtiṃ viddhi me parām |
jīvabhūtaṃ mahābāho
yayedaṃ dhāryate jagat ||
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(aparā iyam itaḥ tu anyām
prakṛtim viddhi me parām |
jīvabhūtām mahābāho
yayā idam dhāryate jagat ||)
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Meaning :
(In the previous śloka 4, śrīkṛṣṇa described the eight-fold prakṛti (that is composed of the earth / pṛthvī, water / āpa / jala, fire (agni), air, ether, mind (mana), intellect (buddhi), and ego) as the aparā aṣṭadhā (jaḍa) prakṛti of The Supreme Being / Reality.)
In comparison, there is yet another kind of parā prakṛti of The Supreme Being / Reality that is of the nature of pure consciousness only and is the totality cetana-prakṛti / jīva-samaṣṭi of all conscious beings. And the universe is part of and supported by this another kind of parā prakṛti of the Lord.
Note :
The Lord, The Supreme is even beyond this cetana-prakṛti, He is The Intelligence, and beyond the grasp of the mind / intellect of man.
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Chapter 7, śloka 10,
bījaṃ māṃ sarvabhūtānāṃ
viddhi pārtha sanātanam |
buddhirbuddhimatāmasmi
tejastejasvināmaham ||
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(bījam mām sarvabhūtānām
viddhi pārtha sanātanam |
buddhiḥ buddhimatām asmi
tejaḥ tejasvinām aham ||)
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Meaning :
O pārtha (arjuna) ! Know Me the seed eternal, of all being, and Know, I AM the intellect in all those who have discretion and thought, the brilliance who have acumen of mind.
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Chapter 7, śloka 12,
ye caiva sāttvikā bhāvā
rājasāstāmasāśca ye |
matta eveti tānviddhi
na tvahaṃ teṣu te mayi ||
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(ye ca eva sāttvikāḥ bhāvāḥ
rājasāḥ tāmasāḥ ca ye |
mattaḥ eva iti tān viddhi
na tu aham teṣu te mayi ||
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Meaning :
These tendencies of sAttvika (of harmony, peace and light ), of rAjasa (passion, restlessness, confusion), and also tAmasa (indolence, inertia, ignorance and darkness) of mind though all they have their emergence from ME; know well, They are in ME, and not I, in them.
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There is a ground where-from and wherein these tendencies emerge, express them-self and dissolve again and again. That ground is 'consciousness' which is devoid of even the 'I'-sense of being 'some-one'. This 'I'-sense, -of being 'some-one' is a thought and inference on the part of intellect (the faculty of brain). This 'I'-sense, intellect and tendencies keep rising and setting, but the ground neither rises nor sets. This ground is The timeless consciousness, undivided, unlimited, while the 'person', a bundle of memories associated with and caught together in 'I'-sense is always a person, limited in a specific body, time and space. Knowing thus ...
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