Monday, August 18, 2014

आज का श्लोक, ’विभुः’ / ’vibhuḥ’

आज का श्लोक, ’विभुः’ / ’vibhuḥ’
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’विभुः’ / ’vibhuḥ’ - जगत्-रूप में व्यक्त परमात्मा,

अध्याय 5, श्लोक 15,

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
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( न आदत्ते कस्यचित् पापम् न च एव सुकृतम् विभुः
अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥)
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भावार्थ :
न तो विधाता (परमेश्वर) किसी के पापकर्म को और न ही किसी के पुण्यकर्म को ग्रहण करता है, (अर्थात् विधाता की दृष्टि में न तो कोई पाप करता है और न ही पुण्य) किन्तु ज्ञान पर अज्ञान का आवरण होने से भ्रमवश, उस अज्ञान से मोहित होकर जीव अपने-आपको उन कर्मों का कर्ता समझ बैठता है ।
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’विभुः’ / ’vibhuḥ’ - The  Immanent and Transcendent Reality, as is perceived in the manifest form,

Chapter 5, śloka 15,

nādatte kasyacitpāpaṃ
na caiva sukṛtaṃ vibhuḥ |
ajñānenāvṛtaṃ jñānaṃ
tena muhyanti jantavaḥ ||
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( na ādatte kasyacit pāpam
na ca eva sukṛtam vibhuḥ |
ajñānena āvṛtam jñānam
tena muhyanti jantavaḥ ||)
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Meaning :
The Supreme Lord owns neither the sinful deeds of men, nor does He own their virtuous deeds, but because the Wisdom in the individual soul (self)  is covered under the veil of ignorance, men tend to fall prey to delusion (and so believe themselves responsible for the good or the bad deeds), which they think they do.
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