Wednesday, August 13, 2014

आज का श्लोक, ’विश्वम्’ / ’viśvam’

आज का श्लोक, ’विश्वम्’ / ’viśvam’
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’विश्वम्’ / ’viśvam’ - संपूर्ण विश्व को,

अध्याय 11, श्लोक 19,

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥
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(अनादि-मध्यान्तम्-अनन्तवीर्यम्
अनन्तबाहुम् शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वाम् दीप्त-हुताशन-वक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वम् इदम् तपन्तम् ॥)
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भावार्थ :
हे आदि-मध्य-अन्त-रहित, हे अनन्तबाहु, हे शशि-सूर्य-नेत्र!  मैं देख रहा हूँ कि प्रज्ज्वलित अग्नि जैसा प्रदीप्त आपका मुखमण्डल अपने तेज से इस समस्त विश्व को संतप्त कर रहा है ।
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अध्याय 11, श्लोक 38,

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
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(त्वम् आदिदेवः पुरुषः पुराणः
त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम् ।
वेत्ता असि वेद्यम् च परम् निधानम्
त्वया ततम् विश्वम् अनन्तरूप ॥
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भावार्थ :
आप आदिदेव हैं, पुरुष सनातन हैं, आप इस जगत् के परम आश्रय हैं । आप ही एकमात्र जाननेवाले (ज्ञाता), जिसे जाना जाता है वह जानने-योग्य तत्व (ज्ञेय), तथा परम धाम हैं, हे अनन्तरूप! समस्त विश्व आपसे ओत-प्रोत है ।
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अध्याय 11, श्लोक 47,

श्रीभगवानुवाच :
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं 
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥
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(मया प्रसन्नेन तव अर्जुन इदम् 
रूपम् परम् दर्शितम् आत्मयोगात् ।
तेजोमयम् विश्वम् अनन्तम् आद्यम् 
यत् मे त्वत् अन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! मेरे द्वारा प्रसन्न होकर अपने आत्मयोग से, अपना यह  तेजोमय, सम्पूर्ण अनन्त और आद्य, जो परम स्वरूप तुम्हें दिखलाया गया, उसे तुम्हारे अतिरिक्त इससे पूर्व किसी अन्य के द्वारा नहीं देखा गया ।
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’विश्वम्’ / ’viśvam’  - (to the) whole world,

Chapter 11, śloka 19,

anādimadhyāntamanantavīrya-
manantabāhuṃ śaśisūryanetram |
paśyāmi tvāṃ dīptahutāśavaktraṃ
svatejasā viśvamidaṃ tapantam ||
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(anādi-madhyāntam-anantavīryam
anantabāhum śaśisūryanetram |
paśyāmi tvām dīpta-hutāśana-vaktram
svatejasā viśvam idam tapantam ||)
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Meaning :
O One without a beginning, a middle or an end ! O One of potential and arms infinite ! O One with The Moon and The Sun for the eyes ! I see Your Face Resplendent like a burning Fire, scorching this whole world with your Radiance.
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Chapter 11, śloka 38,

tvamādidevaḥ puruṣaḥ purāṇa-
stvamasya viśvasya paraṃ nidhānam |
vettāsi vedyaṃ ca paraṃ ca dhāma
tvayā tataṃ viśvamanantarūpa||
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(tvam ādidevaḥ puruṣaḥ purāṇaḥ
tvam asya viśvasya param nidhānam |
vettā asi vedyam ca param nidhānam
tvayā tatam viśvam anantarūpa ||
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Meaning :
You are the Divinity prime (ādideva), Spirit (puruṣa) Eternal (purāṇa), You are The abode supreme of this All (viśva), O Manifest in Infinite forms (anantarūpa) ! You pervade all this existence.
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Chapter 11, śloka 47,

śrībhagavānuvāca :

mayā prasannena tavārjunedaṃ
rūpaṃ paraṃ darśitamātmayogāt |
tejomayaṃ viśvamanantamādyaṃ 
yanme tvadanyena na dṛṣṭapūrvam ||
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(mayā prasannena tava arjuna idam 
rūpam param darśitam ātmayogāt |
tejomayam viśvam anantam ādyam 
yat me tvat anyena na dṛṣṭapūrvam ||)
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Meaning :
O arjun, My This effulgent, Supreme form that by My Grace and by way of My own power of ātmayoga /  the Yoga of Self, which has been revealed to you, has never been seen before this, by any one else except you.
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