आज का श्लोक,
’विनश्यति’ / ’vinaśyati’
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’विनश्यति’ / ’vinaśyati’ - नष्ट हो जाता है,
अध्याय 4, श्लोक 40,
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
--
(अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशयात्मा विनश्यति ।
न-अयम् लोको अस्ति न परः न सुखम् संशयात्मनः ॥)
--
भावार्थ :
(विवेकजन्य) ज्ञान तथा श्रद्धा से रहित, संशययुक्त चित्त वाला मनुष्य विनष्ट हो जाता है, क्योंकि न तो यह लोक और न परलोक, और इसलिए न सुख ही, उसका होता है ।
--
अध्याय 8, श्लोक 20,
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥
--
(परः तस्मात् तु भावः अन्यः अव्यक्तः अव्यक्तात् सनातनः ।
यः सः सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥)
--
भावार्थ :
समस्त भूतसमुदाय दिन के उगने के साथ संसार के व्यवहार में जाग्रत / व्यक्त हो उठता है, एवं रात्रि आने पर निद्रा के वशीभूत हुआ प्रलीन हो जाता है । अहोरात्रविद् (काल की गणना करनेवालों) जी दृष्टि में यह दिन और रात्रि का नियम आब्रह्म-भुवन (सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लेकर समस्त छोटे-से छोटे भूतों तक) लागू होता है । इस व्यक्त और अव्यक्त भाव से अन्य एक और अव्यक्त भाब है, जो अव्यक्त होने के साथ साथ सनातन भी है । और जो सारे भूतों के विनष्ट हो जाने (अपने आदिकारण में विलीन हो जाने) के बाद भी विनष्ट नहीं होता (क्योंकि वह अविनाशी है ।)
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’विनश्यति’ / ’vinaśyati’ - is lost, is destroyed,
Chapter 4, śloka 40,
ajñaścāśraddadhānaśca
saṃśayātmā vinaśyati |
nāyaṃ loko:'sti na paro
na sukhaṃ saṃśayātmanaḥ ||
--
(ajñaḥ ca aśraddadhānaḥ ca
saṃśayātmā vinaśyati |
na-ayam loko asti na paraḥ
na sukham saṃśayātmanaḥ ||)
--
Meaning :
One who has no wisdom, is ignorant of the Truth, one who lacks trust, and even more, is doubtful about the way of wisdom is just destroyed. For such a man, there is neither this world, nor the world here-after. There is no hope nor happiness for him.
--
Chapter 8, śloka 20,
parastasmāttu bhāvo:'nyo:'
vyakto:'vyaktātsanātanaḥ |
yaḥ sa sarveṣu bhūteṣu
naśyatsu na vinaśyati ||
--
(paraḥ tasmāt tu bhāvaḥ anyaḥ
avyaktaḥ avyaktāt sanātanaḥ |
yaḥ saḥ sarveṣu bhūteṣu
naśyatsu na vinaśyati ||)
--
Meaning :
Beyond this manifest and this hidden, there is yet another level of existence My transcendent form and abode, which is immutable and imperishable. Which stays so eternally even through the destruction of both the manifest and the the immanent (seed / hidden / not so manifest).
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’विनश्यति’ / ’vinaśyati’
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’विनश्यति’ / ’vinaśyati’ - नष्ट हो जाता है,
अध्याय 4, श्लोक 40,
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
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(अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशयात्मा विनश्यति ।
न-अयम् लोको अस्ति न परः न सुखम् संशयात्मनः ॥)
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भावार्थ :
(विवेकजन्य) ज्ञान तथा श्रद्धा से रहित, संशययुक्त चित्त वाला मनुष्य विनष्ट हो जाता है, क्योंकि न तो यह लोक और न परलोक, और इसलिए न सुख ही, उसका होता है ।
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अध्याय 8, श्लोक 20,
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥
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(परः तस्मात् तु भावः अन्यः अव्यक्तः अव्यक्तात् सनातनः ।
यः सः सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥)
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भावार्थ :
समस्त भूतसमुदाय दिन के उगने के साथ संसार के व्यवहार में जाग्रत / व्यक्त हो उठता है, एवं रात्रि आने पर निद्रा के वशीभूत हुआ प्रलीन हो जाता है । अहोरात्रविद् (काल की गणना करनेवालों) जी दृष्टि में यह दिन और रात्रि का नियम आब्रह्म-भुवन (सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लेकर समस्त छोटे-से छोटे भूतों तक) लागू होता है । इस व्यक्त और अव्यक्त भाव से अन्य एक और अव्यक्त भाब है, जो अव्यक्त होने के साथ साथ सनातन भी है । और जो सारे भूतों के विनष्ट हो जाने (अपने आदिकारण में विलीन हो जाने) के बाद भी विनष्ट नहीं होता (क्योंकि वह अविनाशी है ।)
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’विनश्यति’ / ’vinaśyati’ - is lost, is destroyed,
Chapter 4, śloka 40,
ajñaścāśraddadhānaśca
saṃśayātmā vinaśyati |
nāyaṃ loko:'sti na paro
na sukhaṃ saṃśayātmanaḥ ||
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(ajñaḥ ca aśraddadhānaḥ ca
saṃśayātmā vinaśyati |
na-ayam loko asti na paraḥ
na sukham saṃśayātmanaḥ ||)
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Meaning :
One who has no wisdom, is ignorant of the Truth, one who lacks trust, and even more, is doubtful about the way of wisdom is just destroyed. For such a man, there is neither this world, nor the world here-after. There is no hope nor happiness for him.
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Chapter 8, śloka 20,
parastasmāttu bhāvo:'nyo:'
vyakto:'vyaktātsanātanaḥ |
yaḥ sa sarveṣu bhūteṣu
naśyatsu na vinaśyati ||
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(paraḥ tasmāt tu bhāvaḥ anyaḥ
avyaktaḥ avyaktāt sanātanaḥ |
yaḥ saḥ sarveṣu bhūteṣu
naśyatsu na vinaśyati ||)
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Meaning :
Beyond this manifest and this hidden, there is yet another level of existence My transcendent form and abode, which is immutable and imperishable. Which stays so eternally even through the destruction of both the manifest and the the immanent (seed / hidden / not so manifest).
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