आज का श्लोक, ’विद्यते’ / ’vidyate’
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’विद्यते’ / ’vidyate’ - होता है, है, का अस्तित्व है,
अध्याय 2, श्लोक 16,
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
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(न असतः विद्यते भावः न अभावः विद्यते सतः ।
उभयोः अपि दृष्टः अन्तः अनयोः तत्त्वदर्शिभिः ॥)
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भावार्थ :
न तो असत् की विद्यमानता है, और न सत् की अविद्यमानता । तत्त्वदर्शियों द्वारा उन दोनों (असत् और सत्) का भी यथार्थ रूप इस प्रकार से देखा जाता है ।
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टिप्पणी : ’असत्’ का अर्थ है ’प्रतीति’, ’सत्’ का अर्थ है, आधारभूत मूल स्थिर वस्तु । सभी प्रतीतियों के मूल में वह चेतना जो प्रतीति के परिवर्तन के दौरान स्थिर और अपरिवर्तित होती है, ’सत्’ है, इसलिए ’असत्’ की उपस्थिति केवल प्रतीति है, जिसकी सत्यता सदा संदिग्ध है, और जान लेने पर तो वह भी चित्त के ’संकल्प’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ऐसा ’देखा’ जाता है । इसी प्रकार से ’दृष्टा’ या ’देखनेवाले तत्व’ अर्थात् ’चेतना’ का अबाध अस्तित्व स्व-प्रमाणित सत्यता है, जिस पर सन्देह तक नहीं किया जा सकता क्योंकि तब सन्देह जिसे है, उसका अस्तित्व स्वीकार करना ही होगा ।
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अध्याय 2, श्लोक 31,
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
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(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
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’विद्यते’ / ’vidyate’ - होता है, है, का अस्तित्व है,
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
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(न असतः विद्यते भावः न अभावः विद्यते सतः ।
उभयोः अपि दृष्टः अन्तः अनयोः तत्त्वदर्शिभिः ॥)
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भावार्थ :
न तो असत् की विद्यमानता है, और न सत् की अविद्यमानता । तत्त्वदर्शियों द्वारा उन दोनों (असत् और सत्) का भी यथार्थ रूप इस प्रकार से देखा जाता है ।
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टिप्पणी : ’असत्’ का अर्थ है ’प्रतीति’, ’सत्’ का अर्थ है, आधारभूत मूल स्थिर वस्तु । सभी प्रतीतियों के मूल में वह चेतना जो प्रतीति के परिवर्तन के दौरान स्थिर और अपरिवर्तित होती है, ’सत्’ है, इसलिए ’असत्’ की उपस्थिति केवल प्रतीति है, जिसकी सत्यता सदा संदिग्ध है, और जान लेने पर तो वह भी चित्त के ’संकल्प’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ऐसा ’देखा’ जाता है । इसी प्रकार से ’दृष्टा’ या ’देखनेवाले तत्व’ अर्थात् ’चेतना’ का अबाध अस्तित्व स्व-प्रमाणित सत्यता है, जिस पर सन्देह तक नहीं किया जा सकता क्योंकि तब सन्देह जिसे है, उसका अस्तित्व स्वीकार करना ही होगा ।
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अध्याय 2, श्लोक 31,
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
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(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
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भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
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अध्याय 2, श्लोक 40,
न इहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
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(न इह अभिक्रमनाशः अस्ति प्रत्यवायः न विद्यते ।
स्वल्पम् अपि अस्य धर्मस्य त्रायते महतः भयात् ॥)
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भावार्थ :
इस (योगमार्ग में) एक बार प्रवृत्त हो जाने पर, यह क्रम कभी नष्ट नहीं होता अर्थात् अनवरत चलता है, इसमें बाधाएँ नहीं आतीं, और इस धर्म (क्रम) का थोड़ा सा भी स्पर्श, महान् से महान् भय से भी रक्षा करता है ।
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अध्याय 3, श्लोक 17,
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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
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(यः तु आत्मरतिः एव स्यात्-आत्मतृप्तः च मानवः ।
आत्मनि-एव च सन्तुष्टः तस्य कार्यम् न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
परंतु जो मनुष्य (आत्मा को जानकर) आत्मा में ही रमण करता है, और आत्मा में ही तृप्त एवं सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता ।
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अध्याय 4, श्लोक 38,
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
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(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
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भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
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अध्याय 6, श्लोक 40,
श्रीभगवानुवाच :
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥
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(पार्थ न एव इह न अमुत्र विनाशः तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिम् तात गच्छति ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण बोले :
हे पार्थ (अर्जुन) ! उस मनुष्य का न तो यहाँ (इस लोक में) और न ही वहाँ (उस लोक में, मृत्यु हो जाने के अनन्तर भी), क्षति / विनाश होता है । (श्लोक 37 में पूछे गए प्रश्न के सन्दर्भ में), हे तात (अर्जुन)! अपने आत्मोद्धार हेतु योग में श्रद्धापूर्वकसंलग्नचित्त कोई भी मनुष्य कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता ।
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अध्याय 8, श्लोक 16,
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
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(आब्रह्म-भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ब्रह्म सहित, समस्त ही लोक (अर्थात् छोटे-बड़े सभी) बारम्बार प्रकट और अप्रकट हुआ करते हैं, किन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन)! मुझे प्राप्त हो जाने के बाद ऐसा पुनः पुनः आवागमन फिर नहीं होता ।
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अध्याय 16, श्लोक 7,
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥
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(प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च जनाः न विदुः आसुराः ।
न शौचम् न च आचारः न सत्यम् तेषु विद्यते ॥)
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भावार्थ :
आसुरी प्रवृत्ति की प्रबलता जिनमें होती है, वे न तो यह जानते हैं कि (विषयों में) मन की प्रवृत्ति क्यों और कैसे होती है, और न ही यह, कि (विषयों से) मन की निवृत्ति क्यों और कैसे होती है । न तो वे शुचिता / अशुचिता क्या है, इसे जानते हैं न सदाचरण, और न ही उनमें सत्य के लिए कोई महत्व-बुद्धि होती है ।
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’विद्यते’ / ’vidyate’ - has existence, exists, occurs,
Chapter 2, śloka 16,
nāsato vidyate bhāvo
nābhāvo vidyate sataḥ |
ubhayorapi dṛṣṭo:'ntast-
vanayostattvadarśibhiḥ ||
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(na asataḥ vidyate bhāvaḥ
na abhāvaḥ vidyate sataḥ |
ubhayoḥ api dṛṣṭaḥ antaḥ
anayoḥ tattvadarśibhiḥ ||)
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Meaning :
Unreality (asat) has no existence while Reality (sat) has no absence. The truth of both has been realized / known explicitly by those, who have known the essence of the two.
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Note : This Reality is for ever, eternal, where-in and where-from all manifestation emerges out and returns to.
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Chapter 2, śloka 31,
svadharmamapi cāvekṣya
na vikampitumarhasi |
dharmyāddhi yuddhācchreyo
:'nyatkṣatriyasya na vidyate ||
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(svadharmam-api ca-avekṣya
na vikampitum-arhasi |
dharmyāt-hi yuddhāt-śreyaḥ
anyat kṣatriyasya na vidyate ||)
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Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
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Chapter 2, śloka 40,
na ihābhikramanāśo:'sti
pratyavāyo na vidyate |
svalpamapyasya dharmasya
trāyate mahato bhayāt ||
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(na iha abhikramanāśaḥ asti
pratyavāyaḥ na vidyate |
svalpam api asya dharmasya
trāyate mahataḥ bhayāt ||)
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Meaning :
In this venture (way of yoga), there is no failure, once began, there is no obstruction to it, unhindered it keeps on prospering, and practicing it even a bit, saves one from the greatest danger.
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Chapter 3, śloka 17,
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yastvātmaratireva syā-
dātmatṛptaśca mānavaḥ |
ātmanyeva ca santuṣṭa-
stasya kāryaṃ na vidyate ||
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(yaḥ tu ātmaratiḥ eva syāt
ātmatṛptaḥ ca mānavaḥ |
ātmani-eva ca santuṣṭaḥ
tasya kāryam na vidyate ||)
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Meaning :
But a man, who has realized the 'Self' once and for all, delights in the Self, derives satisfaction in the Self only, and firmly abides in the Self', has nothing what-so-ever else to obtain, no more a duty to perform.
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Chapter 4, śloka 38,
na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tatsvayaṃ yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||
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(na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tat svayam yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||)
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Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
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Chapter 6, śloka 40,
śrībhagavānuvāca :
pārtha naiveha nāmutra
vināśastasya vidyate |
na hi kalyāṇakṛtkaścid-
durgatiṃ tāta gacchati ||
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(pārtha na eva iha na amutra
vināśaḥ tasya vidyate |
na hi kalyāṇakṛt kaścit
durgatim tāta gacchati ||)
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Meaning :
bhagavān śrīkṛṣṇa says : pārtha (arjuna) ! No one, here (in this life) or in the world next (the life here-after), who is earnestly engaged in making efforts for his ultimate good ( kalyāṇa), is destroyed. O tāta (arjuna)!
Such a man never meets adversities on the path of yoga.
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Chapter 8, śloka 16,
ābrahmabhuvanāllokāḥ
punarāvartino:'rjuna |
māmupetya tu kaunteya
punarjanma na vidyate ||
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(ābrahma-bhuvanāt lokāḥ
punarāvartinaḥ arjuna |
mām upetya tu kaunteya
punarjanma na vidyate ||)
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Meaning :
arjuna! Beginning with Brahma (The Supreme manifest form), all existent forms undergo cycles of manifestation and dissolution, but O kaunteya (arjuna)! Having attained ME, there is no rebirth (such repetetion) any more.
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Chapter 16, śloka 7,
pravṛttiṃ ca nivṛttiṃ ca
janā na vidurāsurāḥ |
na śaucaṃ nāpi cācāro
na satyaṃ teṣu vidyate ||
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(pravṛttim ca nivṛttim
ca janāḥ na viduḥ āsurāḥ |
na śaucam na ca ācāraḥ
na satyam teṣu vidyate ||)
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Meaning :
Those having evil propensities (āsurī pravṛtti) of mind, neither know how and why the mind gets caught in the different modes and tendencies, and how and why it becomes free from them. They don't know what is the purity and clarity of actions and purpose, they neither observe a way of good conduct, nor have inclination and attention towards truth.
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