आज का श्लोक,
’विनियतम्’ / ’viniyatam’
___________________
’विनियतम्’ / ’viniyatam’ - सम्यकतया नियन्त्रित किया हुआ,
अध्याय 6, श्लोक 18,
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो तदा युक्त इत्युच्यते ।
--
(यदा विनियतम् चित्तम् आत्मनि एव अवतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः तदा युक्तः इति उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
जब सम्यकतया नियन्त्रित किया हुआ चित्त समस्त कामनाओं से निर्लिप्त और अप्रभावित हुआ, आत्मा में ही भली-भाँति टिक जाता है, तब उसको ’युक्त’ अर्थात् ’योगयुक्त’ कहा जाता है ।
--
टिप्पणी :
चित्तं चित् विजानीयात् तकार-रहितं यदा ।
तकार विषयाध्यासो तकारो वृत्तिर्भवेत् ॥
--
'चित्त' जिसे कहा जाता है, उस वस्तु के दो अवयव होते हैं, पहला चेतना (ध्यान) और दूसरा वृत्ति । जब वृत्ति का निरोध हो जाता है, तो चित्त त-कार से रहित, चेतन-मात्र या चेतना-मात्र रहता है, जहाँ दृष्टा-दृश्य का भेद विलीन हो जाता है ।
--
’विनियतम्’ / ’viniyatam’
___________________
’विनियतम्’ / ’viniyatam’ - सम्यकतया नियन्त्रित किया हुआ,
अध्याय 6, श्लोक 18,
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो तदा युक्त इत्युच्यते ।
--
(यदा विनियतम् चित्तम् आत्मनि एव अवतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः तदा युक्तः इति उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
जब सम्यकतया नियन्त्रित किया हुआ चित्त समस्त कामनाओं से निर्लिप्त और अप्रभावित हुआ, आत्मा में ही भली-भाँति टिक जाता है, तब उसको ’युक्त’ अर्थात् ’योगयुक्त’ कहा जाता है ।
--
टिप्पणी :
चित्तं चित् विजानीयात् तकार-रहितं यदा ।
तकार विषयाध्यासो तकारो वृत्तिर्भवेत् ॥
--
'चित्त' जिसे कहा जाता है, उस वस्तु के दो अवयव होते हैं, पहला चेतना (ध्यान) और दूसरा वृत्ति । जब वृत्ति का निरोध हो जाता है, तो चित्त त-कार से रहित, चेतन-मात्र या चेतना-मात्र रहता है, जहाँ दृष्टा-दृश्य का भेद विलीन हो जाता है ।
--
’विनियतम्’ / ’viniyatam’ - well-restrained, regulated, ordered,
Chapter 6, śloka 18,
yadā viniyataṃ cittam-
ātmanyevāvatiṣṭhate |
niḥspṛhaḥ sarvakāmebhyo
tadā yukta ityucyate |
--
(yadā viniyatam cittam
ātmani eva avatiṣṭhate |
niḥspṛhaḥ sarvakāmebhyaḥ
tadā yuktaḥ iti ucyate ||)
--
Meaning :
When the mind (cittam) is properly restrained so that the attention is withdrawn from the external objects and stays firmly in the consciousness / 'Self', such a man unattached to, and unaffected by all craving, attains the state of abiding in 'yoga', and is called 'yuktaḥ' / 'yogayukta'.
--
Note :
Here let us see what is meant by (cittam).
What is known as 'mind' in common parlance is a composite of two factors, namely - attention / consciousness and the mode (वृत्ति) / flux. The two are elements of basically and altogether different kinds.
When attention / consciousness is free of mode(s) / (वृत्ति) / flux, there is no movement of desire or passion any more. Yet one can stay in that state with utmost peace and relaxed state, that is different from 'pleasure'. There is no more 'sorrow' / 'pain' either, nor sleep or swoon or dream. Then cittam is revealed as cit. This 'cit' is verily The Reality, Brahman, Atman, Self.
--
No comments:
Post a Comment