आज का श्लोक, ’विभूतिम्’ / ’vibhūtim’
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’विभूतिम्’ / ’vibhūtim’ - विभूति (अनेक प्रकारों से विशिष्ट रूप में मेरी अभिव्यक्ति) को,
अध्याय 10, श्लोक 7,
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एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
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(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(-सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
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अध्याय 10, श्लोक 18,
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
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(विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिः हि शृण्वतः न अस्ति मे अमृतम् ॥)
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भावार्थ :
हे जनार्दन (कृष्ण)! आप अपनी योगमाया की शक्ति और विभूतियों का पुनः और अधिक विस्तार से वर्णन करें, क्योंकि आपके इन अमृत-वचनों को सुनते हुए मुझ सुननेवाले की और सुनने की उत्कण्ठा अतृप्त ही रहती है ।
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’विभूतिम्’ / ’vibhūtim’ - manifestation in the glorious forms of various kinds,
Chapter 10, śloka 7,
etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
--
(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
--
Meaning :
One who realizes the Essence of My Divine forms (vibhūti) andthe Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( achalā bhakti ) towards Me.
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Chapter 10, śloka 18,
vistareṇātmano yogaṃ
vibhūtiṃ ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi
śṛṇvato nāsti me:'mṛtam ||
--
(vistareṇa ātmanaḥ yogam
vibhūtim ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptiḥ hi
śṛṇvataḥ na asti me amṛtam ||)
--
Meaning :
O janārdana (kṛṣṇa) ! Please describe for me Your divine power of yoga-māyā and the divine glories in details, because while hearing your ambrosial words, my thirst is not quenched and asks for even more.
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’विभूतिम्’ / ’vibhūtim’ - विभूति (अनेक प्रकारों से विशिष्ट रूप में मेरी अभिव्यक्ति) को,
अध्याय 10, श्लोक 7,
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एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
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(एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः ।
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः ॥)
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भावार्थ :
जो पुरुष मेरी परमैश्वर्यरूपी विभूति तथा योग(-सामर्थ्य) को, इन्हें तत्त्वतः जानता है, वह अविकम्पित अचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इस बारे में संशय नहीं ।
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अध्याय 10, श्लोक 18,
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
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(विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिः हि शृण्वतः न अस्ति मे अमृतम् ॥)
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भावार्थ :
हे जनार्दन (कृष्ण)! आप अपनी योगमाया की शक्ति और विभूतियों का पुनः और अधिक विस्तार से वर्णन करें, क्योंकि आपके इन अमृत-वचनों को सुनते हुए मुझ सुननेवाले की और सुनने की उत्कण्ठा अतृप्त ही रहती है ।
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Chapter 10, śloka 7,
etāṃ vibhūtiṃ yogaṃ ca
mama yo vetti tattvataḥ |
so:'vikampena yogena
yujyate nātra saṃśayaḥ ||
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(etām vibhūtim yogam ca
mama yaḥ vetti tattvataḥ |
saḥ avikampena yogena
yujyate na atra saṃśayaḥ ||)
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Meaning :
One who realizes the Essence of My Divine forms (vibhūti) andthe Power associated with them, and My (yoga-aiśvarya) / infinite potential, He attains the unwavering devotion ( achalā bhakti ) towards Me.
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Chapter 10, śloka 18,
vistareṇātmano yogaṃ
vibhūtiṃ ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi
śṛṇvato nāsti me:'mṛtam ||
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(vistareṇa ātmanaḥ yogam
vibhūtim ca janārdana |
bhūyaḥ kathaya tṛptiḥ hi
śṛṇvataḥ na asti me amṛtam ||)
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Meaning :
O janārdana (kṛṣṇa) ! Please describe for me Your divine power of yoga-māyā and the divine glories in details, because while hearing your ambrosial words, my thirst is not quenched and asks for even more.
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