Saturday, August 16, 2014

आज का श्लोक, ’विवस्वान्’ / ’vivasvān’, ’विवस्वते’ / ’vivasvate’

आज का श्लोक, ’विवस्वान्’ / ’vivasvān’, ’विवस्वते’ / ’vivasvate’, 
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’विवस्वान्’ / ’vivasvān’ - सूर्य,
’विवस्वते’ / ’vivasvate’ - विवस्वान् के प्रति,
अध्याय 4, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
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(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
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भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप  मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
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टिप्पणी :
1.वि-वस्-वान् - अपने अन्तर में वास करने वाला सूर्य, जो चैतन्य-रूप में प्राणिमात्र के हृदय को अपने अस्तित्व की सहज चेतना के प्रकाश से जागृत / प्रकाशित रखता है ।
प्राणिमात्र अनायास ही अपने अस्तित्व के बोध से युक्त होता है, यह बोध ही वह सनातन प्रकाश है और विवस्वान् वह सूर्य है जो कि इस प्रकाश का स्रोत है ।
2. ’मुझ अव्यय आत्म-स्वरूप मैंने (अर्थात् परमात्मा ने)’ / ’अहम्-अव्यय’ का तात्पर्य और अच्छी तरह समझने के लिए श्लोक संख्या 6 को समझना उपयोगी होगा :

[अध्याय 4, श्लोक 6,

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥
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(अजः अपि  सन् अव्यय-आत्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् ।
प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय संभवामि आत्म-मायया ॥)
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भावार्थ :
जन्मरहित और अविनाशी स्वरूपवाला परम-आत्मा होते हुए भी होते हुए भी, जन्म लेनेवाले और मर जानेवाले समस्त प्राणियों का नियमन करनेवाला होने से, मैं अपनी (त्रिगुणात्मिका) प्रकृति के माध्यम से अपनी आत्ममाया को धारण करता हुआ उसके अन्तर्गत देहधारी की तरह व्यक्त हो उठता हूँ ।]
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’विवस्वान्’ / ’vivasvān’ - Sun as the light of the Self, in the form of 'I'-sense, that shines spontaneously in the hearts of all creatures,
’विवस्वते’ / ’vivasvate’ - in favor of / given to  vivasvān 
Chapter 4, śloka 1,

śrībhagavānuvāca :
imaṃ vivasvate yogaṃ
proktavānahamavyayam |
vivasvānmanave prāha
manurikṣvākave:'bravīt ||
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(imam vivasvate yogam
proktavān aham avyayam |
vivasvān manave prāha
manuḥ ikṣvākave abravīta ||)
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Meaning :
I, the Eternal Self-Divine imparted this element of yoga to vivasvān (Sun*), vivasvān to manu*, and then manu to ikṣvāku*,
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Note :
1.This śloka 1 could be further interpreted in this way :
Accordingly vivasvān (Sun) is the Light of Consciousness that emanates from the Eternal Self-Divine and is revealed to all sentient beings as the 'I'-sense or the spontaneous awareness of oneself, in the first place in their own hearts, though is then diminished under the weight of latent tendencies and is seen / experienced as 'world and me'. From  vivasvān this light then takes the form of manu  / man (mind) or individual / personal consciousness. manu, -the man lends this to 'desire for truth and speech', i.e. to ikṣvāku, and so on, ...this traditionally handed out wisdom was then lost in the ages bygone.  
2.The sense ahamavyayam of could be grasped better with the help of this śloka 6 Chapter 4. :
[Chapter 4, shloka 6,
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ajo:'pi sannavyayātmā
bhūtānāmīśvaro:'pi san |
prakṛtiṃ svāmadhiṣṭhāya
saṃbhavāmyātmamāyayā ||
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(ajaḥ api  san avyaya-ātmā
bhūtānām īśvaraḥ api san |
prakṛtiṃ svām adhiṣṭhāya
saṃbhavāmi ātma-māyayā ||)
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Meaning :
Though unborn and immutable, with the support of My (threefold) 'prakṛti' (name and form), I manifest Myself ever, through My own 'māyā' (Divine power).]
3. manu and ikṣvāku, are again the prominent men that form the link between eons like satyuga and tretāyuga
which happened before the arrival of Lord śrīkṛṣṇa in dvāpara-yuga,

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