आज का श्लोक, ’विन्दति’ / ’vindati’
____________________________
’विन्दति’ / ’vindati’ - प्राप्त करता है,
अध्याय 4, श्लोक 38,
--
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
--
(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
--
भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 21,
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥
--
(बाह्य-स्पर्शेषु-असक्तात्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् ।
सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम्-अक्षयम् अश्नुते ।)
--
भावार्थ :
बाहर के (मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों से होनेवाले विषयजनित) सम्पर्क से अछूता मनुष्य जिस सुख को अपनी अन्तरात्मा में प्राप्त करता है, ब्रह्मके ध्यान में लीन उसको ही उस अक्षय सुख का अनुभव होता है ।
--
’विन्दति’ / ’vindati’ - gets as a result of, finds, attains,
Chapter 4, śloka 38,
na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tatsvayaṃ yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||
--
(na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tat svayam yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||)
--
Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
--
Chapter 5, śloka 21,
bāhyasparśeṣvasaktātmā
vindatyātmani yatsukham |
sa brahmayogayuktātmā
sukhamakṣayamaśnute ||
--
(bāhya-sparśeṣu-asaktātmā
vindati ātmani yat sukham |
saḥ brahmayogayuktātmā
sukham-akṣayam aśnute |)
--
Meaning :
Thus is attained the bliss infinite by this consciousness, (that is freed from all action, unidentified with the action), untouched by the outward objects, That is the imperishable Bliss of Brahman, and because of merging in Brahman.
--
____________________________
’विन्दति’ / ’vindati’ - प्राप्त करता है,
अध्याय 4, श्लोक 38,
--
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
--
(न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयम् योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥)
--
भावार्थ :
इसमें सन्देह नहीं, कि जिसे मनुष्य सदा ही योगाभ्यास की पूर्णता में स्वयं अपनी ही आत्मा मे पा लिया करता है, उस ज्ञान जैसा पावनकारी और दूसरा कुछ इस संसार में नहीं है ।
--
अध्याय 5, श्लोक 21,
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥
--
(बाह्य-स्पर्शेषु-असक्तात्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् ।
सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम्-अक्षयम् अश्नुते ।)
--
भावार्थ :
बाहर के (मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों से होनेवाले विषयजनित) सम्पर्क से अछूता मनुष्य जिस सुख को अपनी अन्तरात्मा में प्राप्त करता है, ब्रह्मके ध्यान में लीन उसको ही उस अक्षय सुख का अनुभव होता है ।
--
अध्याय 18, श्लोक 45,
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छ्रुणु ॥
--
(स्वे स्वे कर्मणि अभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् शृणु ॥)
--
भावार्थ :
कोई भी मनुष्य अपने विशिष्ट कर्मों में तत्परता से युक्त होकर ज्ञान-निष्ठा रूपी संसिद्धि का लाभ प्राप्त कर लेता है । अपने उस विशिष्ट कर्म में लगा रहते हुए उसे ऐसा लाभ कैसे प्राप्त होता है, उसे सुनो ।
--
अध्याय 18, श्लोक 46,
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
--
(यतः प्रवृत्तिः भूतानाम् येन सर्वम् इदं ततम् ।
स्वकर्मणा तम्-अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः ॥)
--
भावार्थ :
जिस मूल तत्व से समस्त प्राणियों में प्रवृत्ति-विशेष का उद्भव होता है, (और जैसे बर्फ़ जल से व्याप्त होता है,) जिससे यह सब-कुछ व्याप्त है, अपने-अपने विशिष्ट स्वाभाविक कर्म (के आचरण) से उसकी आराधना करते हुए मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है ।
--
Chapter 4, śloka 38,
na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tatsvayaṃ yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||
--
(na hi jñānena sadṛśaṃ
pavitramiha vidyate |
tat svayam yogasaṃsiddhaḥ
kālenātmani vindati ||)
--
Meaning:
Here in the whole world, there is nothing else as much powerful as the wisdom, that purifies the mind. Over the passage of time, this wisdom is revealed to one, who has pursued over this path of Yoga earnestly and sincerely.
--
Chapter 5, śloka 21,
bāhyasparśeṣvasaktātmā
vindatyātmani yatsukham |
sa brahmayogayuktātmā
sukhamakṣayamaśnute ||
--
(bāhya-sparśeṣu-asaktātmā
vindati ātmani yat sukham |
saḥ brahmayogayuktātmā
sukham-akṣayam aśnute |)
--
Meaning :
Thus is attained the bliss infinite by this consciousness, (that is freed from all action, unidentified with the action), untouched by the outward objects, That is the imperishable Bliss of Brahman, and because of merging in Brahman.
--
Chapter 18, śloka 45,
sve sve karmaṇyabhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhiṃ
yathā vindati tacchruṇu ||
--
(sve sve karmaṇi abhirataḥ
saṃsiddhiṃ labhate naraḥ |
svakarmanirataḥ siddhim
yathā vindati tat śṛṇu ||)
--
Meaning :
When devoted to the ordained duties as advised / instructed by his own 'dharma', one attains the Supreme Goal , perfection. Now listen to, how one attains this, while performing his own duties in the right way,
--
Chapter 18, śloka 46,
yataḥ pravṛttirbhūtānāṃ
yena sarvamidaṃ tatam |
svakarmaṇā tamabhyarcya
siddhiṃ vindati mānavaḥ ||
--
(yataḥ pravṛttiḥ bhūtānām
yena sarvam idaṃ tatam |
svakarmaṇā tam-abhyarcya
siddhim vindati mānavaḥ ||)
--
Meaning :
Performing honestly and devotedly all the duties allotted to one, and worshiping in this way The One Supreme, Who is present in all beings, and Who is the Source, from where all the tendencies arise in the heart (of all beings), one attains perfection in one-self.
--
No comments:
Post a Comment